Wednesday 16 March 2022

होली : राजस्थानी धमाल with Lyrics व नृत्य विशेष

हमारा देश खुशियाँ बाँटने व बटोरने का देश है इसी परम्परा के अंतर्गत अनेक त्योहार मनाये जाते हैं ये त्योहार धार्मिक महत्व के साथ साथ सांस्कृतिक व सामाजिक महत्व भी रखते हैं। इन त्योहारों भारत को अखंड भारत बनाये रखने में विशेष योगदान रहा है। होली जैसे त्योहार को मनाने के भारत वर्ष के हर क्षेत्र में अपने अपने स्थानीय तौर तरिके और रीति-रिवाज रहे हैं। आज हम भारत के उत्तरी-पश्चिमी राज्य राजस्थान की होली व होली के लोक गीत (धमाल) और नृत्य से परिचित होंगे-  
धमाल एक मनभावन, आनंदित  व मदमस्त कर देने वाले वे लोक गीत हैं जो हमें राजस्थान की संस्कृति, आपसी रिश्तों की एक अलग पहचान कराने वाले, अतुलनीय धरोहर, यहाँ की बोली की मिठास और मान सम्मान की भावना से रूबरू कराते हैं।  
धमाल के बोल इतने सीधे व सरल होते हैं कि इनसे आम मानस बहुत जल्दी खुद को जोड़ लेता है। 
ये गीत चंग, बांसुरी, नगाड़े, मंजीरे व घुँघरू नामक वाद्य यंत्रों के साथ गाये जाते हैं। 

इससे संबंधित पुरुष नृत्यकार राजस्थानी पहनावा जैसे राजस्थानी रंगरेज पगड़ी या साफा, सफेद कुर्ता धोती, कमरबंध, पैरों में घुँघरू,जूतियां और नृत्यांगनाएं  घाघरा- कुर्ती एवं विभिन्न आभूषण धारण कर अनोखी अंगभंगिमाओं व शानदार भाव भंगिमाएं प्रदर्शित करते हैं। इनका पहनावा और नृत्य आजकल के नग्न प्रदर्शन और फूहड़पन से कोसों दूर है। 

 इस ब्लॉग में ऐसी ही बेहतरीन ५ धमालों के बोल मय अनुवाद और सुनने के लिए You Tube के लिंक्स उपलब्ध करा रहा हूँ। इन धमालों में चंग की थाप, मजीरों और घुंघरू की टंकार व बांसुरी की सुरीली आवाज आपको थिरकने पर मजबूर कर देंगे। 


(इस धमाल में राजा बलि के दरबार में धुलंडी अपने चरम पर है और कान्हा व राधा केसर कस्तूरी व गुलाल से होली खेल रहे हैं ; इसी आनंदित दृश्य का वर्णन हुआ है। इस धमाल में कान्हा को 'कानुड़ा' और राधा को 'राधा जी' कहकर पुकारना अलौकिक प्रेम और सम्मान को प्रदर्शित करता है। ) 

राजा बलि के दरबार मची रे होली रे राजा बलि के... 

के मण लाल गुलाल उड़त है? (कितने मण लाल गुलाल उड़ रहा है ?) ✩एक मण=40किलोग्राम 

के मण केसर कस्तूरी रे राजा ....? ( कितने मण केसर कस्तूरी ?) 

सौ मण लाल गुलाल उड़त है (सौ मण लाल गुलाल उड़ रहा है) 

दस मण केसर कस्तूरी रे राजा...... (दस मण केसर कस्तूरी रे) 

कितारे बरस को ओ कंवर कानुड़ो रे (कितने वर्ष का ये कुमार कान्हा?) 

कितरा बरस की है राधा गोरी   रे   राजा .... (कितने वर्ष की राधा गौरी)

बीस बरस को म्हारो कंवर कानुड़ो रे 

तेरह बरस की है राधा गोरी रे   राजा ......

कुणा जी के हाथ में है रंग गो कटोरों रे (किनके हाथ में है रंग का कटोरा) 

कुणा जी रे हाथ में है पिचकारी रे राजा ....(किनके हाथ में है पिचकारी) 

राधा जी रे हाथ में रंग को कटोरों रे (राधा जी के हाथ में रंग का कटोरा) 

कानुड़ रे हाथ में पिचकारी रे राजा ....( कान्हा के हाथ में पिचकारी) 

भर पिचकारी कानू राधा उपर मारी रे (भर पिचकारी कान्हा ने राधा ऊपर मारी रे) 

है रंग से भिगोड़ो आंगणयो रे ... राजा ...(है रंग से भीगा आंगन रे )


 (लेबल- वीणा म्यूजिक, सिंगर- सोहन लाल एंड पार्टी)



२. चालो देखण ने 

(धुलंडी वाले दिन राजस्थान में मिलकर एक टोली बनाते है इस टोली में एक पुरुष औरत/दुल्हन की वेशभूषा धारण करता है और एक पुरुष दूल्हे की वेशभूषा में  और टोली के अन्य पुरुष खुद को बाराती मानते हैं और ये सभी चंग/डफ बजाते हुए नाचते  हैं और सभी एक दूसरे को रंग लगते हैं। इस तरह ये टोली पुरे गाँव की हर गली में होली खेलती है। "चालो देखण ने" धमाल में दूल्हा बना हुआ पुरुष जब अपने वास्तिविक घर के बाहर अपनी टोली को लेकर आता है तब इसकी धर्मपत्नी अपनी ननंद को कहती है कि चलो बाई-सा आपके भाई नाच रहे हैं उनको देखने चलते हैं ) राजस्थान में एक महिला अपने पति को 'ननंदल रा बीरा या बाई-सा के भाई कह कर पुकारती है। 

चालो देखण न बाई-सा थारो बीरो नाचे रे चालो देखण न (चलो देखने बाई-सा/ननंद आपका भाई नाच रहे हैं )

बीरो नाचे रे क थारो भाई नाचे रे चालो देखण ने 

आ रसियाँ की टोली देखो ढोलक चंग  बजावे रे (ये रसियों की टोली देखो ढोलक- चंग बजा रही )

घूमर घाले सायबो यो लुळ लुळ नाचे रे, चालो... (घूमर/नृत्य कर है शौहर झुक झुक के) 

बण कर बींद सेवरो बांदयो  रंग म भरया बराती रे  ( बन कर दूल्हा सेवरा बाँधा, रंग में भरे बराती रे)

मुछ्यां आळी बींदणी क सागे नाच रे, चलो.... (मूछों वाली दुल्हन के साथ नाचे रे 😆)

चार तो चंगां की जोड़याँ बाज़ारां म बाजे र (चार डफ की जोड़ी बाजार म बज रही है )  

गोखां बैठी गौरणियां घुंघट स झाँक रे, चालो... (ऊँची जगह पर बैठी गौरियाँ घूंघट से झांक रही है) 

चार तो चंगां की जोड़याँ बागाँ  माय बाजे र (चार डफ की जोड़ी बांगों में बज रही है)  

फूलड़ा चुगती छोरियाँ  चंगां पर नाचे रे ( फूल चुगती हुई लड़कियां चंग/डफ पर नाच रही है )

चालो देखण न बाईसा थारो बीरो नाचे रे चालो देखण न 

बीरो नाचे रे क थारो भाई नाचे रे चालो देखण ने 


                                               (लेबल- वीणा म्यूजिक, सिंगर- सीमा मिश्रा)



३. पचरंग फागणियो 

पचरंग फागणियो रंगा दे होली खेलन रे पचरंग फागणियो 

पहलो तो रंग म्हारा सुसरो जी न्यारा 

लाड लड़ाया म्हाने बाबुल का रे, पचरंग फागणियो 

दुसरो तो रंग म्हारा सासु जी प्यारा याद भुलाई म्हारी मायड़ की रे 

तीजो तो रंग म्हारो देवर प्यारो 

काजळीयो रे म्हारी आंख्यां को रे 

चौथो तो रंग म्हारी ननंदल प्यारी 

कोयलड़ी रे म्हारे बागां की रे, पचरंग फागणियो... 

पाँचवों तो रंग म्हारा छैल भंवर जी प्यारा 

हिवड़ लगाई म्हाने रंग रसियो रे, पचरंग फागणियो 

             
                                             (लेबल- वीणा म्यूजिक, सिंगर- सीमा मिश्रा)



४. थोड़ी थोड़ी लुळ ज्या 

थोड़ी थोड़ी लुळ ज्या म्हारे कड्यां क लिपट ज्या 

म्हारे बादिल भंवर की पाळयोड़ी कमोडण थोड़ी नीची लुळ ज्या ए 

पांच तेरी नथली पचीस तेरो टेवटियो 

कोई पैहर बाण नाचबा न आज्या ऐ कमोडण, थोड़ी नीची लुळ जाय.. 

पांच तेरी चुनड़ी पचीस तेरी कुर्ती 

कोई पैहर बाण नाचबा न आज्या ऐ कमोडण, थोड़ी नीची लुळ जाय..

हथेळयाँ पर तन चुगो ऐ चुगा द्यूं 

कोई नकल्या पाणी पा द्यूं ऐ कमोडण 

म्हारे बादिल भंवर की पाळयोड़ी कमोडण थोड़ी नीची लुळ ज्या ए

कोई पांच तेर टवटीयो,पचीस तेरी पायल

कोई पैहर बाण नाचबा न आज्या ऐ कमोडण, थोड़ी नीची लुळ जाय..

म्हारे बादिल भंवर की पाळयोड़ी कमोडण थोड़ी नीची लुळ ज्या ए


                                
                                        (शेखावाटी क्षेत्र की विशेष धमाल चंग नृत्य के साथ)



(इस धमाल में गायकर अपनी भार्या को ''भाइयों की भावज/भाभी'' के नाम से पुकारता है जो सुनने में बहुत ही प्यारा लगता है)

घूंघट खोल दे भायां की ऐ भावज हियो बिलख रे घूंघट खोल दे 

हियो बिलख रे हियो बिलख घूंघट खोल दे 

चाँद क चाँदनीय गौरी की रखड़ी घड़ीज रे 

बिजली के चाँदने बालमियों निरखे रे तन घूंघट खोल दे 

चाँद क चाँदनीय गौरी की नथली घड़ीज  ओ 

चाँद के चाँदनीय गौरी की पायलड़ी घड़ीज ओ 

बिजली के चाँदने बालमियों निरखे रे तन घूंघट खोल दे

घूंघट खोल दे भायां की ऐ भावज हियो बिलख रे घूंघट खोल दे


   (लेबल- वीणा म्यूजिक, सिंगर- सोहन लाल एंड पार्टी)

                                                                                                                                    Post By-रोहित 
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आभार। 







                             Happy Holi

Thursday 3 March 2022

धरती की नागरिक: श्वेता सिन्हा


क्या आपने कभी महसूस किया है शब्दों की चलती हुई नब्ज़ को, इनके अंदर के जीवन को या इनके साथ चल रहे चलचित्र को कि कोई लिखे हवा और आपने हवा को देख लिया हो, कोई लिखे चाहत और आपने चाहत को जान लिया हो, कोई लिखे प्रेम में डूबना और आप डूब ही गए हों, कोई लिखे सूर्योदय और आप रात में सूर्य उदय होता देख रहें हों. ये 'कोई' कोई ओर नहीं बल्कि हमारी नामज़द कवयित्री श्वेता जी सिन्हा हैं। 

आइये रूबरू होते हैं इनकी कुछ कविताओं से... आइये सीखते है जीवन जीना नए तरिके से 
शीर्षक- हे प्रकृति 


मुझे ठहरी हुई हवाएँ
बेचैन करती हैं
बर्फीली पहाड़ की कठिनाइयाँ
असहज करती है
तीख़ी धूप की झुलसन से
रेत पर पड़ी मछलियों की भाँति
छटपटाने लगती हूँ
किसानों की तरह जीवट नहीं
ऋतुओं की तीक्ष्णता सह नहीं पाती
मैं बीज भी तो नहीं
जो अंकुरित होकर
धान की बालियाँ बने
और किसी का पेट भर सके
मैं चिड़िया भी नहीं 
जिसकी किलकारी से
मौन खिलखिला उठे
मैं पीपल या वट वृक्ष भी नहीं
जो असंख्य जीवों को
अपनी शाखाओं में समेटे
सुरक्षा का एहसास करा सके
मैं पहाड़ पर चढ़कर
बादलों में सपने नहीं भर सकी
मैं प्रेम भी नहीं हो सकी
जो मिटा सके मनुष्य के हृदय की
कलुषिता
मैं ज्ञान भी नहीं बन सकी
जो हो सके पुल
संभव और असंभव के बीच
मैं धूप-छाँव,नदी या झरना
भी नहीं 
शायद... बारिश की वह बूँद हूँ
जो गर्म रेत में गिरते ही सूखकर 
भाप बन जाती है
किसी कंठ की 
प्यास भी नहीं बुझा सकती,

उजाला,अंधेरा,
हरियाली,मरूभूमि, पहाड़,
सागर,सरिता,चिड़िया,चींटी
तितली,मौसम जैसी अनगिनत 
रंगों की अद्भुत चित्रात्मक
कृतियों की तरह ही
सृष्टि ने
मुझको भी दी है 
धरती की नागरिकता
अपने अधिकारों के
भावनात्मक पिंजरे में 
फड़फड़ाती 
जो न पा सकी उस
दुःख की गणना में
अपने मनुष्य जीवन के
कर्तव्यों को
पूरी निष्ठा से निभाने का शायद
ढोंग भर ही कर सकी। 
 
जीवन की 
यात्रा से असंतुष्ट
लासनायुक्त देह और
अतृप्त इच्छाओं के शापग्रस्त मन
का बोझ उठाये
अपने कर्मपथ की भूलभुलैया में 
निरंतर चलती थक चुकी हूँ
मात्र भीड़ की एक देह 
बनकर
अब जन्म-मरण के चक्र में
निरूद्देश्य और असंतुष्ट भटकना 
मुझे स्वीकार नहीं
हे प्रकृति!
मुझे बंधनों से मुक्त करो!
मुझे स्वयं में
एकाकार कर 
मेरे अस्तित्व को
सार्थकता प्रदान करो।

कविता की शुरुआत में कवयित्री को प्रकृति प्रदत कठिनाइयाँ असहज़ कर देती है फिर वो प्रकृति में विध्यमान कई अस्तित्व जैसे बीज, चिड़िया, वृक्ष, प्रेम जैसे अहसास की तुलना ख़ुद के बारिश की बूंद रूपी अस्तित्व से करती हैं जिसे इन सब के बिच इतना सार्थक नहीं मानती। कवयित्री ने यहां मनुष्य जीवन को बारिश की एक बूँद बताया है जिसे धरती की नागरिकता तो मिली लेकिन सभी जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों, पहाड़ों, नदी-नालों यहाँ तक की अहसासों ने प्रकृति के प्रति अपने कर्त्तव्यों को पूरी निष्ठा से निर्वहण किया है सिवाय मनुष्य के। 
मनुष्य ने प्रकृति के प्रति कर्त्तव्यों को निभाने का केवल ढोंग ही किया है। वह प्रकृति से हमेशा कुछ न कुछ छिनता ही रहता है व उसे नुकसान पहुंचता रहता है, संपूर्ण मानव जगत; भीड़ की भीड़ इसमें लगी है और इसे ही वे कर्म  मानते हैं और इसमें ही अपना विकास या प्रगति समझते हैं।  
प्रकृति प्रदत्त कर्मों को और उनसे जुड़े अपने दायित्वों को  मनुष्य ने भुला दिया है। लेकिन कवयित्री प्रकृति से प्रार्थना करती हैं कि वह उसे जीवन-मरण व स्वार्थी कर्मों के बंधनों से मुक्त करे क्योंकि कवयित्री अपने मूल कर्तव्यों का निर्वहन पूरी निष्ठा से कर सके और उसके अस्तित्व को सार्थकता मिल सके इसकेलिए वह खुद में एकाकार होना चाहती है ताकि अपने होने को जान सके, पहचना सके यानि खुद के करीब होना ही प्रकृति के करीब होना होता है। और क़रीब होकर ही क्या कुछ नहीं जाना जा सकता। 
ये संवाद व प्रार्थना रूपी रचना आत्ममंथन, चिंतन और यथार्थ से परिपूर्ण है। ये अभिव्यक्ति आम मानस को मायाजाल से ऊपर उठकर एक वास्तविक पहचान पाने के लिए प्रेरित करती है।  

एक अन्य बेहतरीन रचना-
शीर्षक- जोगिया टेसू मुस्काये रे 


गुन-गुन छेड़े पवन बसंती
धूप की झींसी हुलसाये रे, 
वसन हीन वन कानन में
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
ऋतु फाग के स्वागत में 
धरणी झूमी पहन महावर, 
अधर हुए सेमल के रक्तिम
सखुआ पाकड़ हो गये झांवर,
फुनगी आम्र हिंडोले बैठी
कोयलिया बिरहा गाये रे,
निर्जन पठार की छाती पर
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
ओढ़ ढाक की रेशमी चुनरी 
साँझ चबाये मीठी गिलौरी,
धनुष केसरी,भँवर प्रत्यंचा
बींधे भर-भर रंग कटोरी,
 
छींट-छींट चंदनिया चंदा
भगजोगनी संग इतराये रे,
रेशमी आँचल डुला-डुला
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
दह-दह,दह दहके जंगल
दावानल का शोर मचा, 
ताल बावड़ी लहक रहे
नभ वितान का कोर सजा,
गंधहीन पुष्पों की आँच 
श्वेत शरद पिघलाये रे,
टिटहरी की टिटकारी सुन
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
दान दधीचि-सा पातों का
प्रकृति करती आत्मोत्सर्ग,
नवप्रसून के आसव ढार
भरती सृष्टि में अष्टम् सर्ग,
लोलक-सी चेतना डोल रही
नयनों में टेसू भर आये रे,
हृदय की सूनी पगडंडी पर
जोगिया टेसू मुस्काये रे।

 ये अभिव्यक्ति शरद और बसंत के मौसम में पलाश व पलाश के फूलों का और आसपास का चित्रित रूप हैं। जब सारे पेड़ पौधे अपने पत्ते गिरा चुके हों तब पलाश के फूल खिलते हैं और ऐसा लग रहा हो जैसे वे मुस्का रहे हों। शाल व बरगद के पेड़ इस मौसम में कुम्हला चुके होते हैं लेकिन पलाश के झरे हुए केसरिया फूलों से धरती सजी रहती है। एक जानकारी के मुताबिक़ भारत-वर्ष में होली के रंगों को बनाने में पहले पलाश के फूलों का ही प्रयोग होता था। 
पलाश के फूलों को 'जंगल की आग' की संज्ञा दी जाती है जब ये खिलते हैं तो लगता है जंगल में आग लग गयी हो, इसके झरे हुए फूल जब नदी या ठहरे हुए पानी में गिर जाते हैं तो लगता है जैसे पानी आग की भांति चमक रहा हो और एक शोर मच जाता है कि जंगल में आग लग गयी है इसी बात पर टेसू (पलाश के फूल) चुटकी लेते हुए हँसता हुआ प्रतीत होता है। इस दृश्य को कवयित्री ने जिस मनोरम काव्य चित्रित भाव से प्रकट किया है वो देखते ही बनता है.
पुराने पत्तों को गिराना प्रकृति का एक बलिदान है ताकि उनकी जगह कुछ नया हो सके, कुछ नए पत्तों-कोंपलों का सृजन हो सके और सृष्टि नए रंगों से भर सके, लेकिन फ़िलहाल 
                                                "हृदय की सूनी पगडंडी पर 
                                                  जोगिया टेसू मुस्काये रे।"
इस कविता की तुकबंदी या लय व काव्य चित्रण आपको बसंती उन्माद से भर देगी। 

अन्य कविता जिसका शीर्षक है- अधिकार की परिभाषा 




 
जब देखती हूँ 
अपनी शर्तों पर
ज़िंदगी जीने की हिमायती
माता-पिता के
प्रेम और विश्वास को छलती,
ख़ुद को भ्रमित करती,
अपनी परंपरा,भाषा और संस्कृति 
को "बैकवर्ड थिंकिंग" कहकर
ठहाके लगाती
नीला,लाल,हरा और
किसिम-किसिम से
रंगे कटे केश-विन्यास
लो जींस और टाइट टॉप
अधनंगें कपड़ों को आधुनिकता का
प्रमाण-पत्र देती
उन्मुक्त गालियों का प्रयोग करती
सिगरेट के छल्ले उड़ाती
आर्थिक रुप से सशक्त,
आत्मनिर्भर होने की बजाय
यौन-स्वच्छंदता को आज़ादी
का मापदंड मानती
अपने मन की प्रकृति प्रदत्त
कोमल भावनाओं
को कुचलकर
सुविधायुक्त जीवन जीने
के स्वार्थ में
अपने बुज़ुर्गों के प्रति
संवेदनहीन होती
लड़कों के बराबरी की
 होड़ में दिशाहीन
 आधा तीतर आधा बटेर हुई
 बेटियों को देखकर
 सोचती हूँ
आख़िर हम अपने
किस अधिकार की
लड़ाई की बात करते हैं?
क्या यही परिभाषा है
स्त्रियों की
आज़ादी और समानता की?

नग्नता, जो मुँह में आये बोलना, यौन स्वच्छंदता को ही आजादी समझ बैठी नई पीढ़ी को उनके अभिभावकों की सोच में विश्वास जगाये रखना होगा क्योंकि उनकी सोच एक क्रमिक और अनुभवप्रसूत विकास पर आधारित है। अपने रहन सहन के तौर तरीकों को बदला नहीं जाता जबकि उनको अपडेट किया जाता है। ये कविता चिंता जनक विषय पर सटीक सवाल करती है जिस सवाल में चिंता और डर दोनों हैं।  आक्रोश में अमर्यादित बातें बोलना, किसी को अपमानित करना, किसी की बराबरी कर लेना ही आज़ादी नहीं होती अगर यही आज़ादी होती है तो इसी भाव के साथ लिखी एक अन्य बेहतरीन कविता में कवयित्री प्रश्न करती है कि " तो क्या आज़ादी बुरी होती है? "

श्वेता जी की कलम हरेक विषय पर बख़ूबी पकड़ रखती है और किसी  भी विषय में सकारात्मकता खोज लेने की काबिलीयत रखती है।  
श्वेता जी के द्वारा ऐसी ही सैंकड़ों कमाल की रचनाएँ इनके ब्लॉग पर उगाई जा चुकी है। इनका ब्लॉग click here --->  मन के पाखी  

मेरे इस ब्लॉग पर शेयर की गयी कविताओं को लेकर आपके विचार कवयित्री के लिए अनमोल हैं आप उनकी कविता पर टिप्पणी देकर अपने विचार श्वेता जी से साझा कर सकते हैं।  तीनो कविताओं के लिंक- 

                                           हे प्रकृति

                                          जोगिया टेसू मुस्काये रे

                                          अधिकार की परिभाषा

                                                                                 By: Rohitas Ghorela 
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होली : राजस्थानी धमाल with Lyrics व नृत्य विशेष

हमारा देश खुशियाँ बाँटने व बटोरने का देश है इसी परम्परा के अंतर्गत अनेक त्योहार मनाये जाते हैं ये त्योहार धार्मिक महत्व के साथ साथ सांस्कृति...