Wednesday 16 March 2022

होली : राजस्थानी धमाल with Lyrics व नृत्य विशेष

हमारा देश खुशियाँ बाँटने व बटोरने का देश है इसी परम्परा के अंतर्गत अनेक त्योहार मनाये जाते हैं ये त्योहार धार्मिक महत्व के साथ साथ सांस्कृतिक व सामाजिक महत्व भी रखते हैं। इन त्योहारों भारत को अखंड भारत बनाये रखने में विशेष योगदान रहा है। होली जैसे त्योहार को मनाने के भारत वर्ष के हर क्षेत्र में अपने अपने स्थानीय तौर तरिके और रीति-रिवाज रहे हैं। आज हम भारत के उत्तरी-पश्चिमी राज्य राजस्थान की होली व होली के लोक गीत (धमाल) और नृत्य से परिचित होंगे-  
धमाल एक मनभावन, आनंदित  व मदमस्त कर देने वाले वे लोक गीत हैं जो हमें राजस्थान की संस्कृति, आपसी रिश्तों की एक अलग पहचान कराने वाले, अतुलनीय धरोहर, यहाँ की बोली की मिठास और मान सम्मान की भावना से रूबरू कराते हैं।  
धमाल के बोल इतने सीधे व सरल होते हैं कि इनसे आम मानस बहुत जल्दी खुद को जोड़ लेता है। 
ये गीत चंग, बांसुरी, नगाड़े, मंजीरे व घुँघरू नामक वाद्य यंत्रों के साथ गाये जाते हैं। 

इससे संबंधित पुरुष नृत्यकार राजस्थानी पहनावा जैसे राजस्थानी रंगरेज पगड़ी या साफा, सफेद कुर्ता धोती, कमरबंध, पैरों में घुँघरू,जूतियां और नृत्यांगनाएं  घाघरा- कुर्ती एवं विभिन्न आभूषण धारण कर अनोखी अंगभंगिमाओं व शानदार भाव भंगिमाएं प्रदर्शित करते हैं। इनका पहनावा और नृत्य आजकल के नग्न प्रदर्शन और फूहड़पन से कोसों दूर है। 

 इस ब्लॉग में ऐसी ही बेहतरीन ५ धमालों के बोल मय अनुवाद और सुनने के लिए You Tube के लिंक्स उपलब्ध करा रहा हूँ। इन धमालों में चंग की थाप, मजीरों और घुंघरू की टंकार व बांसुरी की सुरीली आवाज आपको थिरकने पर मजबूर कर देंगे। 


(इस धमाल में राजा बलि के दरबार में धुलंडी अपने चरम पर है और कान्हा व राधा केसर कस्तूरी व गुलाल से होली खेल रहे हैं ; इसी आनंदित दृश्य का वर्णन हुआ है। इस धमाल में कान्हा को 'कानुड़ा' और राधा को 'राधा जी' कहकर पुकारना अलौकिक प्रेम और सम्मान को प्रदर्शित करता है। ) 

राजा बलि के दरबार मची रे होली रे राजा बलि के... 

के मण लाल गुलाल उड़त है? (कितने मण लाल गुलाल उड़ रहा है ?) ✩एक मण=40किलोग्राम 

के मण केसर कस्तूरी रे राजा ....? ( कितने मण केसर कस्तूरी ?) 

सौ मण लाल गुलाल उड़त है (सौ मण लाल गुलाल उड़ रहा है) 

दस मण केसर कस्तूरी रे राजा...... (दस मण केसर कस्तूरी रे) 

कितारे बरस को ओ कंवर कानुड़ो रे (कितने वर्ष का ये कुमार कान्हा?) 

कितरा बरस की है राधा गोरी   रे   राजा .... (कितने वर्ष की राधा गौरी)

बीस बरस को म्हारो कंवर कानुड़ो रे 

तेरह बरस की है राधा गोरी रे   राजा ......

कुणा जी के हाथ में है रंग गो कटोरों रे (किनके हाथ में है रंग का कटोरा) 

कुणा जी रे हाथ में है पिचकारी रे राजा ....(किनके हाथ में है पिचकारी) 

राधा जी रे हाथ में रंग को कटोरों रे (राधा जी के हाथ में रंग का कटोरा) 

कानुड़ रे हाथ में पिचकारी रे राजा ....( कान्हा के हाथ में पिचकारी) 

भर पिचकारी कानू राधा उपर मारी रे (भर पिचकारी कान्हा ने राधा ऊपर मारी रे) 

है रंग से भिगोड़ो आंगणयो रे ... राजा ...(है रंग से भीगा आंगन रे )


 (लेबल- वीणा म्यूजिक, सिंगर- सोहन लाल एंड पार्टी)



२. चालो देखण ने 

(धुलंडी वाले दिन राजस्थान में मिलकर एक टोली बनाते है इस टोली में एक पुरुष औरत/दुल्हन की वेशभूषा धारण करता है और एक पुरुष दूल्हे की वेशभूषा में  और टोली के अन्य पुरुष खुद को बाराती मानते हैं और ये सभी चंग/डफ बजाते हुए नाचते  हैं और सभी एक दूसरे को रंग लगते हैं। इस तरह ये टोली पुरे गाँव की हर गली में होली खेलती है। "चालो देखण ने" धमाल में दूल्हा बना हुआ पुरुष जब अपने वास्तिविक घर के बाहर अपनी टोली को लेकर आता है तब इसकी धर्मपत्नी अपनी ननंद को कहती है कि चलो बाई-सा आपके भाई नाच रहे हैं उनको देखने चलते हैं ) राजस्थान में एक महिला अपने पति को 'ननंदल रा बीरा या बाई-सा के भाई कह कर पुकारती है। 

चालो देखण न बाई-सा थारो बीरो नाचे रे चालो देखण न (चलो देखने बाई-सा/ननंद आपका भाई नाच रहे हैं )

बीरो नाचे रे क थारो भाई नाचे रे चालो देखण ने 

आ रसियाँ की टोली देखो ढोलक चंग  बजावे रे (ये रसियों की टोली देखो ढोलक- चंग बजा रही )

घूमर घाले सायबो यो लुळ लुळ नाचे रे, चालो... (घूमर/नृत्य कर है शौहर झुक झुक के) 

बण कर बींद सेवरो बांदयो  रंग म भरया बराती रे  ( बन कर दूल्हा सेवरा बाँधा, रंग में भरे बराती रे)

मुछ्यां आळी बींदणी क सागे नाच रे, चलो.... (मूछों वाली दुल्हन के साथ नाचे रे 😆)

चार तो चंगां की जोड़याँ बाज़ारां म बाजे र (चार डफ की जोड़ी बाजार म बज रही है )  

गोखां बैठी गौरणियां घुंघट स झाँक रे, चालो... (ऊँची जगह पर बैठी गौरियाँ घूंघट से झांक रही है) 

चार तो चंगां की जोड़याँ बागाँ  माय बाजे र (चार डफ की जोड़ी बांगों में बज रही है)  

फूलड़ा चुगती छोरियाँ  चंगां पर नाचे रे ( फूल चुगती हुई लड़कियां चंग/डफ पर नाच रही है )

चालो देखण न बाईसा थारो बीरो नाचे रे चालो देखण न 

बीरो नाचे रे क थारो भाई नाचे रे चालो देखण ने 


                                               (लेबल- वीणा म्यूजिक, सिंगर- सीमा मिश्रा)



३. पचरंग फागणियो 

पचरंग फागणियो रंगा दे होली खेलन रे पचरंग फागणियो 

पहलो तो रंग म्हारा सुसरो जी न्यारा 

लाड लड़ाया म्हाने बाबुल का रे, पचरंग फागणियो 

दुसरो तो रंग म्हारा सासु जी प्यारा याद भुलाई म्हारी मायड़ की रे 

तीजो तो रंग म्हारो देवर प्यारो 

काजळीयो रे म्हारी आंख्यां को रे 

चौथो तो रंग म्हारी ननंदल प्यारी 

कोयलड़ी रे म्हारे बागां की रे, पचरंग फागणियो... 

पाँचवों तो रंग म्हारा छैल भंवर जी प्यारा 

हिवड़ लगाई म्हाने रंग रसियो रे, पचरंग फागणियो 

             
                                             (लेबल- वीणा म्यूजिक, सिंगर- सीमा मिश्रा)



४. थोड़ी थोड़ी लुळ ज्या 

थोड़ी थोड़ी लुळ ज्या म्हारे कड्यां क लिपट ज्या 

म्हारे बादिल भंवर की पाळयोड़ी कमोडण थोड़ी नीची लुळ ज्या ए 

पांच तेरी नथली पचीस तेरो टेवटियो 

कोई पैहर बाण नाचबा न आज्या ऐ कमोडण, थोड़ी नीची लुळ जाय.. 

पांच तेरी चुनड़ी पचीस तेरी कुर्ती 

कोई पैहर बाण नाचबा न आज्या ऐ कमोडण, थोड़ी नीची लुळ जाय..

हथेळयाँ पर तन चुगो ऐ चुगा द्यूं 

कोई नकल्या पाणी पा द्यूं ऐ कमोडण 

म्हारे बादिल भंवर की पाळयोड़ी कमोडण थोड़ी नीची लुळ ज्या ए

कोई पांच तेर टवटीयो,पचीस तेरी पायल

कोई पैहर बाण नाचबा न आज्या ऐ कमोडण, थोड़ी नीची लुळ जाय..

म्हारे बादिल भंवर की पाळयोड़ी कमोडण थोड़ी नीची लुळ ज्या ए


                                
                                        (शेखावाटी क्षेत्र की विशेष धमाल चंग नृत्य के साथ)



(इस धमाल में गायकर अपनी भार्या को ''भाइयों की भावज/भाभी'' के नाम से पुकारता है जो सुनने में बहुत ही प्यारा लगता है)

घूंघट खोल दे भायां की ऐ भावज हियो बिलख रे घूंघट खोल दे 

हियो बिलख रे हियो बिलख घूंघट खोल दे 

चाँद क चाँदनीय गौरी की रखड़ी घड़ीज रे 

बिजली के चाँदने बालमियों निरखे रे तन घूंघट खोल दे 

चाँद क चाँदनीय गौरी की नथली घड़ीज  ओ 

चाँद के चाँदनीय गौरी की पायलड़ी घड़ीज ओ 

बिजली के चाँदने बालमियों निरखे रे तन घूंघट खोल दे

घूंघट खोल दे भायां की ऐ भावज हियो बिलख रे घूंघट खोल दे


   (लेबल- वीणा म्यूजिक, सिंगर- सोहन लाल एंड पार्टी)

                                                                                                                                    Post By-रोहित 
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आभार। 







                             Happy Holi

Thursday 3 March 2022

धरती की नागरिक: श्वेता सिन्हा


क्या आपने कभी महसूस किया है शब्दों की चलती हुई नब्ज़ को, इनके अंदर के जीवन को या इनके साथ चल रहे चलचित्र को कि कोई लिखे हवा और आपने हवा को देख लिया हो, कोई लिखे चाहत और आपने चाहत को जान लिया हो, कोई लिखे प्रेम में डूबना और आप डूब ही गए हों, कोई लिखे सूर्योदय और आप रात में सूर्य उदय होता देख रहें हों. ये 'कोई' कोई ओर नहीं बल्कि हमारी नामज़द कवयित्री श्वेता जी सिन्हा हैं। 

आइये रूबरू होते हैं इनकी कुछ कविताओं से... आइये सीखते है जीवन जीना नए तरिके से 
शीर्षक- हे प्रकृति 


मुझे ठहरी हुई हवाएँ
बेचैन करती हैं
बर्फीली पहाड़ की कठिनाइयाँ
असहज करती है
तीख़ी धूप की झुलसन से
रेत पर पड़ी मछलियों की भाँति
छटपटाने लगती हूँ
किसानों की तरह जीवट नहीं
ऋतुओं की तीक्ष्णता सह नहीं पाती
मैं बीज भी तो नहीं
जो अंकुरित होकर
धान की बालियाँ बने
और किसी का पेट भर सके
मैं चिड़िया भी नहीं 
जिसकी किलकारी से
मौन खिलखिला उठे
मैं पीपल या वट वृक्ष भी नहीं
जो असंख्य जीवों को
अपनी शाखाओं में समेटे
सुरक्षा का एहसास करा सके
मैं पहाड़ पर चढ़कर
बादलों में सपने नहीं भर सकी
मैं प्रेम भी नहीं हो सकी
जो मिटा सके मनुष्य के हृदय की
कलुषिता
मैं ज्ञान भी नहीं बन सकी
जो हो सके पुल
संभव और असंभव के बीच
मैं धूप-छाँव,नदी या झरना
भी नहीं 
शायद... बारिश की वह बूँद हूँ
जो गर्म रेत में गिरते ही सूखकर 
भाप बन जाती है
किसी कंठ की 
प्यास भी नहीं बुझा सकती,

उजाला,अंधेरा,
हरियाली,मरूभूमि, पहाड़,
सागर,सरिता,चिड़िया,चींटी
तितली,मौसम जैसी अनगिनत 
रंगों की अद्भुत चित्रात्मक
कृतियों की तरह ही
सृष्टि ने
मुझको भी दी है 
धरती की नागरिकता
अपने अधिकारों के
भावनात्मक पिंजरे में 
फड़फड़ाती 
जो न पा सकी उस
दुःख की गणना में
अपने मनुष्य जीवन के
कर्तव्यों को
पूरी निष्ठा से निभाने का शायद
ढोंग भर ही कर सकी। 
 
जीवन की 
यात्रा से असंतुष्ट
लासनायुक्त देह और
अतृप्त इच्छाओं के शापग्रस्त मन
का बोझ उठाये
अपने कर्मपथ की भूलभुलैया में 
निरंतर चलती थक चुकी हूँ
मात्र भीड़ की एक देह 
बनकर
अब जन्म-मरण के चक्र में
निरूद्देश्य और असंतुष्ट भटकना 
मुझे स्वीकार नहीं
हे प्रकृति!
मुझे बंधनों से मुक्त करो!
मुझे स्वयं में
एकाकार कर 
मेरे अस्तित्व को
सार्थकता प्रदान करो।

कविता की शुरुआत में कवयित्री को प्रकृति प्रदत कठिनाइयाँ असहज़ कर देती है फिर वो प्रकृति में विध्यमान कई अस्तित्व जैसे बीज, चिड़िया, वृक्ष, प्रेम जैसे अहसास की तुलना ख़ुद के बारिश की बूंद रूपी अस्तित्व से करती हैं जिसे इन सब के बिच इतना सार्थक नहीं मानती। कवयित्री ने यहां मनुष्य जीवन को बारिश की एक बूँद बताया है जिसे धरती की नागरिकता तो मिली लेकिन सभी जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों, पहाड़ों, नदी-नालों यहाँ तक की अहसासों ने प्रकृति के प्रति अपने कर्त्तव्यों को पूरी निष्ठा से निर्वहण किया है सिवाय मनुष्य के। 
मनुष्य ने प्रकृति के प्रति कर्त्तव्यों को निभाने का केवल ढोंग ही किया है। वह प्रकृति से हमेशा कुछ न कुछ छिनता ही रहता है व उसे नुकसान पहुंचता रहता है, संपूर्ण मानव जगत; भीड़ की भीड़ इसमें लगी है और इसे ही वे कर्म  मानते हैं और इसमें ही अपना विकास या प्रगति समझते हैं।  
प्रकृति प्रदत्त कर्मों को और उनसे जुड़े अपने दायित्वों को  मनुष्य ने भुला दिया है। लेकिन कवयित्री प्रकृति से प्रार्थना करती हैं कि वह उसे जीवन-मरण व स्वार्थी कर्मों के बंधनों से मुक्त करे क्योंकि कवयित्री अपने मूल कर्तव्यों का निर्वहन पूरी निष्ठा से कर सके और उसके अस्तित्व को सार्थकता मिल सके इसकेलिए वह खुद में एकाकार होना चाहती है ताकि अपने होने को जान सके, पहचना सके यानि खुद के करीब होना ही प्रकृति के करीब होना होता है। और क़रीब होकर ही क्या कुछ नहीं जाना जा सकता। 
ये संवाद व प्रार्थना रूपी रचना आत्ममंथन, चिंतन और यथार्थ से परिपूर्ण है। ये अभिव्यक्ति आम मानस को मायाजाल से ऊपर उठकर एक वास्तविक पहचान पाने के लिए प्रेरित करती है।  

एक अन्य बेहतरीन रचना-
शीर्षक- जोगिया टेसू मुस्काये रे 


गुन-गुन छेड़े पवन बसंती
धूप की झींसी हुलसाये रे, 
वसन हीन वन कानन में
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
ऋतु फाग के स्वागत में 
धरणी झूमी पहन महावर, 
अधर हुए सेमल के रक्तिम
सखुआ पाकड़ हो गये झांवर,
फुनगी आम्र हिंडोले बैठी
कोयलिया बिरहा गाये रे,
निर्जन पठार की छाती पर
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
ओढ़ ढाक की रेशमी चुनरी 
साँझ चबाये मीठी गिलौरी,
धनुष केसरी,भँवर प्रत्यंचा
बींधे भर-भर रंग कटोरी,
 
छींट-छींट चंदनिया चंदा
भगजोगनी संग इतराये रे,
रेशमी आँचल डुला-डुला
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
दह-दह,दह दहके जंगल
दावानल का शोर मचा, 
ताल बावड़ी लहक रहे
नभ वितान का कोर सजा,
गंधहीन पुष्पों की आँच 
श्वेत शरद पिघलाये रे,
टिटहरी की टिटकारी सुन
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
दान दधीचि-सा पातों का
प्रकृति करती आत्मोत्सर्ग,
नवप्रसून के आसव ढार
भरती सृष्टि में अष्टम् सर्ग,
लोलक-सी चेतना डोल रही
नयनों में टेसू भर आये रे,
हृदय की सूनी पगडंडी पर
जोगिया टेसू मुस्काये रे।

 ये अभिव्यक्ति शरद और बसंत के मौसम में पलाश व पलाश के फूलों का और आसपास का चित्रित रूप हैं। जब सारे पेड़ पौधे अपने पत्ते गिरा चुके हों तब पलाश के फूल खिलते हैं और ऐसा लग रहा हो जैसे वे मुस्का रहे हों। शाल व बरगद के पेड़ इस मौसम में कुम्हला चुके होते हैं लेकिन पलाश के झरे हुए केसरिया फूलों से धरती सजी रहती है। एक जानकारी के मुताबिक़ भारत-वर्ष में होली के रंगों को बनाने में पहले पलाश के फूलों का ही प्रयोग होता था। 
पलाश के फूलों को 'जंगल की आग' की संज्ञा दी जाती है जब ये खिलते हैं तो लगता है जंगल में आग लग गयी हो, इसके झरे हुए फूल जब नदी या ठहरे हुए पानी में गिर जाते हैं तो लगता है जैसे पानी आग की भांति चमक रहा हो और एक शोर मच जाता है कि जंगल में आग लग गयी है इसी बात पर टेसू (पलाश के फूल) चुटकी लेते हुए हँसता हुआ प्रतीत होता है। इस दृश्य को कवयित्री ने जिस मनोरम काव्य चित्रित भाव से प्रकट किया है वो देखते ही बनता है.
पुराने पत्तों को गिराना प्रकृति का एक बलिदान है ताकि उनकी जगह कुछ नया हो सके, कुछ नए पत्तों-कोंपलों का सृजन हो सके और सृष्टि नए रंगों से भर सके, लेकिन फ़िलहाल 
                                                "हृदय की सूनी पगडंडी पर 
                                                  जोगिया टेसू मुस्काये रे।"
इस कविता की तुकबंदी या लय व काव्य चित्रण आपको बसंती उन्माद से भर देगी। 

अन्य कविता जिसका शीर्षक है- अधिकार की परिभाषा 




 
जब देखती हूँ 
अपनी शर्तों पर
ज़िंदगी जीने की हिमायती
माता-पिता के
प्रेम और विश्वास को छलती,
ख़ुद को भ्रमित करती,
अपनी परंपरा,भाषा और संस्कृति 
को "बैकवर्ड थिंकिंग" कहकर
ठहाके लगाती
नीला,लाल,हरा और
किसिम-किसिम से
रंगे कटे केश-विन्यास
लो जींस और टाइट टॉप
अधनंगें कपड़ों को आधुनिकता का
प्रमाण-पत्र देती
उन्मुक्त गालियों का प्रयोग करती
सिगरेट के छल्ले उड़ाती
आर्थिक रुप से सशक्त,
आत्मनिर्भर होने की बजाय
यौन-स्वच्छंदता को आज़ादी
का मापदंड मानती
अपने मन की प्रकृति प्रदत्त
कोमल भावनाओं
को कुचलकर
सुविधायुक्त जीवन जीने
के स्वार्थ में
अपने बुज़ुर्गों के प्रति
संवेदनहीन होती
लड़कों के बराबरी की
 होड़ में दिशाहीन
 आधा तीतर आधा बटेर हुई
 बेटियों को देखकर
 सोचती हूँ
आख़िर हम अपने
किस अधिकार की
लड़ाई की बात करते हैं?
क्या यही परिभाषा है
स्त्रियों की
आज़ादी और समानता की?

नग्नता, जो मुँह में आये बोलना, यौन स्वच्छंदता को ही आजादी समझ बैठी नई पीढ़ी को उनके अभिभावकों की सोच में विश्वास जगाये रखना होगा क्योंकि उनकी सोच एक क्रमिक और अनुभवप्रसूत विकास पर आधारित है। अपने रहन सहन के तौर तरीकों को बदला नहीं जाता जबकि उनको अपडेट किया जाता है। ये कविता चिंता जनक विषय पर सटीक सवाल करती है जिस सवाल में चिंता और डर दोनों हैं।  आक्रोश में अमर्यादित बातें बोलना, किसी को अपमानित करना, किसी की बराबरी कर लेना ही आज़ादी नहीं होती अगर यही आज़ादी होती है तो इसी भाव के साथ लिखी एक अन्य बेहतरीन कविता में कवयित्री प्रश्न करती है कि " तो क्या आज़ादी बुरी होती है? "

श्वेता जी की कलम हरेक विषय पर बख़ूबी पकड़ रखती है और किसी  भी विषय में सकारात्मकता खोज लेने की काबिलीयत रखती है।  
श्वेता जी के द्वारा ऐसी ही सैंकड़ों कमाल की रचनाएँ इनके ब्लॉग पर उगाई जा चुकी है। इनका ब्लॉग click here --->  मन के पाखी  

मेरे इस ब्लॉग पर शेयर की गयी कविताओं को लेकर आपके विचार कवयित्री के लिए अनमोल हैं आप उनकी कविता पर टिप्पणी देकर अपने विचार श्वेता जी से साझा कर सकते हैं।  तीनो कविताओं के लिंक- 

                                           हे प्रकृति

                                          जोगिया टेसू मुस्काये रे

                                          अधिकार की परिभाषा

                                                                                 By: Rohitas Ghorela 
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Friday 11 February 2022

CYCLAMEN COUM : INDOOR FLOWER PLANT

इंडोर प्लांट्स में ये पौधा ख़ूबसूरती की बला है।  CYCLAMEN COUM एक बौनी प्रजाति का वह पौधा है जिसके हरेक भाग में प्रकृति के द्वारा ख़ूबसूरती उकेरी गयी है। आप इसकी वैलेंटाइन-दिल जैसी आकार की पत्तियां देखें, इसकी कोंपल, इसकी कलियाँ देखें या देखे इसके गुलाबे-इज़हार जैसे सुंदर प्यारे फूल।  देखते ही इस पौधे से आपको प्यार हो जायेगा। आओ दिखलाते हैं इसकी कुछ झलक.... 

सबसे पहले इसकी पत्तियों की ख़ूबसूरती का नजारा करियेगा-  











इसकी ऊपर निकलती हुई कलियों की शोभा-




इसके भांति भांति के रंग बिरंगे फूल... मनभावन फूल-








जॉन एलिया साब के ये दो शेर मुहब्बत करने वालों के नाम

कितने ज़ालिम हैं जो ये कहते हैं 
तोड़ लो फूल, फूल छोड़ो मत 

बागबाँ ! हम तो इस ख़याल के हैं 
देख लो फूल, फूल तोड़ो मत 

-जॉन एलिया

पौधे की सामान्य जानकारी :

यह पौधा ठंडे तथा सीलन भरे क्षेत्र में जल्दी व अच्छे से विकास करता है। इसके लिए गर्मियों में सुबह सुबह की तरोताज़ा हल्की धुप वाली जगह उचित है। यह पौधा 20℃ से 32℃ का तापमान तक सहन करने की क्षमता रखता है।  इस पौधे का आकार 5 से 7 इंच होता है। 
इसका बोटैनिकल नाम- CYCLAMEN PERSICUM (सिक्लेमेन परसिकम) है।
   
इसको गमलें में लगाने का तरीका-





जैसा की यह एक बौनी प्रजाति है तो इसके  लिए छोटा गलमला ( 5 से 6 इंच ) पर्याप्त है।  इस गमले की तली में ड्रेनेज हॉल जरूरी है।  लगाने के लिए मिटटी का वेल ड्रेन होना बहुत जरूरी है क्योँकि इस पौधे की जड़ों में पानी ठहरना नहीं चाहिए व मिट्टी के मिक्सर का अनुपात इस प्रकार का रखें- 
  • 50 % गार्डन सॉइल 
  • 20 % वर्मी कम्पोस्ट 
  • 20 % कोकोपिट 
  • 10 % LEAF MOULD (सूखे पत्तों की खाद)
 गमलों में लगाते समय इसकी जड़ों को हिलाएं नहीं क्यूंकि इसकी जड़ें बड़ी नाजुक होती है वो टूट सकती हैं।

इस पौधे को ज्यादा पानी की आवश्यकता तो नहीं होती लेकिन मिटटी को नम (MOIST) रखना बहुत जरूरी है.
इस पौधे को कटाई छंटाई (PRUNE) की व RE-POT करने की जरूरत नहीं पड़ती।

इसमें पतझड़ से लेकर वसंत तक फूल खिलते हैं.... चटक लाल, गुलाबी, सफ़ेद, बैंगनी रंगों के फूल। 

इसको घर के अंदर लगाने का एक बेहतरीन लाभ प्राप्त होगा। आपको यह पौधा केवल इसकी ख़ूबसूरती के लिए ही नहीं  बल्कि दुनियां में व्याप्त अनेक परिस्थितियों की वजह से हो रहे  चिड़चिड़े स्वभाव को शांत व निर्मल बनाने के लिए लगाना चाहिए। जी हाँ... इस पौधे को देखने मात्र से स्वभाव में परिवर्तन आ जाता है इसका अपना कोमल व शांत स्वभाव आपके मानसिक स्वभाव को प्रभावित करता है। जब भी इसको और इसके खिले फूलों को देखने का सौभाग्य मिलता है तो दिल सकूँ से भर जाता है।  

इसकी मनमोहक छवि को देख कर ऐसे लगता जैसे किसी चित्रकार ने आँखे बंद कर अपनी कल्पना में जी लगाकर कोई चित्र सोचा हो और प्रकृति ने उसकी मनोकामना पूरी करने के लिए ये पौधा धरा पर ऊगा दिया हो।  





General Information:
  • Grow in cool and humid environment.
  • Botanical name- Cyclamen Persicum
  • Type- Perennial
  • size of plant- 5 to 7 inches tall and wide 
  • soil- moist and well- drained 
  • Bloom time- Fall to Spring 
  • Flower Color- Pink, White, Red, Violet 
  • Light- In Winter - indirect and bright and in Summer when the plant is dormant it's best to keep it in cool and dark spot with good air circulation. 
  • This plant does not need to be pruned and repotted.
  • Keep the soil moist, just add as much water to it. 
One of the great benefits of planting this plant is that it makes your irritable nature calm and gentle. Seeing its beautiful flowers fills the heart with ease.It's rounded heart-shaped leaves and flowers like proposed rose both are part of its beauty.





Thank You.
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                                                                                                   By- Rohit . 

                                         
   


   

Saturday 5 February 2022

समय साक्षी रहना तुम by रेणु बाला



रचनाकार रेणु बाला जी का परिचय 


 "समय साक्षी रहना तुम" पुस्तक खुद को माँ सरस्वती की सुता मान उन्हीं के वरदान से रेणु बाला जी ने अनुपम कृतियों का सृजन कर  इनका संग्रह हिंदी कविता जगत को अद्वितीय भेंट है. 

पांच भागों में विभक्त ये पुस्तक संयुक्त रूप से हमारी जिंदगी से जुड़े हर पहलू से संबंद्ध रखती है, ये पांच भाग निम्न है-
१. वंदना       २. रिश्तों के बंधन     ३. कुदरत के पैगाम       ४. भाव प्रवाह        ५ . सम सामयिक और अन्य 

किताब की शुरुवात माँ सरस्वती की वंदना से होती है जो ममत्व के भाव में लिखी गयी है कवयित्री गुरुवर के आशीर्वाद से निहाल होकर अपने गाँव और मिटटी को भी नमन करती है और इस मिटटी को भी माँ का दर्जा मिला है.
वो मिटटी जो एक बेटी को हमेशा खुशियों से भर देती है वही बेटी जब उस धरा माँ की ख़ुशहाली के लिए दुआ करती है तो एक पावन अनुभूति पाठकों के मन में जागृत होती है। 

इस इस पुस्तक में रिश्तों को एक आत्मीय लगाव व उनकी गहरी समझ के साथ बयाँ किये गए हैं।  यहां कभी माँ का प्यार एक बिटिया की माँ बनकर समझना ... कभी शेष बची माँ को देखकर पिता की भूमिका का महत्व समझना...  तो कभी यहां बिटिया 'माँ' बोलकर ममता को पूरी करती है।  

कवयित्री के हृदय में एक शिशु के प्रति कितना वात्सल्य और विस्मय है देखिये इन पंक्तियों में-
     "सीखे कोई हृदय से लग 
       तुमसे पीर हिया की हरना.... 
     
      क्या जानो तुम अभिनय करना 
     जानो बस मन आनंद भरना 
    अनभिज्ञ धुप-छाँव और ज्ञान से 
     जानो ना बातें छल की 
    फिर भी कैसे सीख गए तुम 
     खुद ही प्रेम की भाषा पढ़ना ?"

प्रकृति के अनेक रंगों को हमारे जीवन के ताने-बाने में गूंथने का काम कवयित्री ने जिस अंदाज में निभाया है वह अद्भुत है।  " चलो नहाएँ बारिश में " नामक कविता आपकी कई यादें ताज़ा न करदे तो कहना।

मेरा ख्याल है कि प्रेम भाव में रची बसी कविताएं इस पुस्तक की आत्मा है-
 सोचो प्रेम में इंतज़ार का खत्म होना और फिर ये पंक्तियाँ कि-  

"अचानक एक दिन खिलखिलाकर 
हंस पड़ी थी चमेली की कलियाँ 
और आवारा काले बादल 
लग गए थे झूम झूम के बरसने 
देखो तो द्वार पर तुम खड़े थे।''  

प्रेम में एकांकीपन और दूरियों के दिन कैसे बीतते हैं-

"जब तुम ना पास थे 
खुद के सवाल थे 
अपने ही जवाब थे 
चुपचाप जिन्हें सुन रहे 
जुगनू,तारे,महताब थे। "

प्रेम में बगैर कोई सवाल के प्रेमिका का अस्तित्व स्वीकार होने का मतलब तलाश ख़त्म होना होता है।  'तुम्हारी चाहत' कविता से ये पंक्तियाँ कि-
"ये चाहत नहीं चाहती 
मैं बदलूँ और भुला दूँ अपना अस्तित्व..." 


प्रेम में समर्पण को बयाँ करती हुई पंक्तियाँ-

"सुनो! मनमीत तुम्हारे हैं 
मेरे पास कहाँ कुछ था 
सब गीत तुम्हारे हैं"

प्रेम के लिए त्याग करने वाला भी महान होता है जिसे अक्सर भुला दिया जाता है। सिद्धार्थ का बुद्ध हो जाने के पीछे यशोधरा का त्याग था तब कवयित्री लिखती हैं-

" बुद्ध की करुणा में सराबोर हो 
तू बनी अनंत महाभागा 
जैसे जागी थी, तू कपलायिनी 
ऐसे कोई नहीं जागा।  "


एक जोगी स्वयं का दुःख मानकर दुनियां का दुःख गाता फिरता है और कवयित्री का कोमल हृदय ये जानने के लिए बैचेन है कि-
"इश्क़ के रस्ते खुदा तक पहुंचे 
क्या तूने वो पथ अपनाया जोगी "

रेणु जी की ये किताब दुनियां में हो रही उथल-पुथल और विषाक्त भावों को भुला देती है। कवयित्री  वेदना की कल्पना मात्र से डर कर कहती हैं-

'सुन, ओ वेदना' नामक कविता से ये पंक्तियाँ 

"ना रुला देना मुझे 
ना फिर सतना मुझे 
दूर किसी जड़ बस्ती में 
जाकर के बस जाना तुम"

धार्मिक दंगों से उभरने को एकता की मिसाल देती है 'शुक्र है गांव में ' नामक कविता और इस कविता का एक पात्र रहीम चचा-

"बरगद से चाचा हैं 
चाचा सा बरगद है 
दोनों की छाँव 
गाँव की सांझी विरासत है। "
 
प्रेम रस की कविताओं के बीच में कुछ-एक पंक्तियों का भाव पूरी कविता के भाव से अलग होता है तब मानों कविता की लय टूट गयी हो लेकिन जब कवयित्री उन भावों का मेल कराती हैं तब फूटता है एक वास्तविक सच्चा इश्क़ और इस इश्क़ के नशे में डूबी हुई जोगन की पुकार।
ये पुस्तक कवयित्री का किसी एक धर्म विशेष से जुड़ाव होने की छाप कई जगह पर छोड़ती रही है फिर भी भाषा शैली एकदम निर्मल व सरल है जिसमें अलंकारों का प्रयोग बहुत कम देखने को मिलता है.
पाठकों को ये किताब दुनियां को एक अलग व सकारात्मक नजरिये से देखने को प्रेरित करती है मानों दुनियां में सब अच्छा ही अच्छा हो रहा हो और हर जगह शांति ही छाई हुई है।रेणु जी की अविस्मरणीय और सादगी से उकेरी गई कविताएं उद्वेलित मन को सही दिशा देने में कामयाब रहती हैं। 
अद्भुत    अद्वितीय      अनोखी प्यारी सी किताब... वाह 

"अपने अनंत प्रवाह में बहना तुम 
पर समय साक्षी रहना तुम" 


अप्रतिम उपहार के लिए आभार बहना 



Monday 12 July 2021

Phyllanthus Buxifolius; Indoor Plant



दोस्तों ,

प्रकृति अपने रंग व रूप में कितनी अनोखी है इसका एक जिंदा उदाहरण इसी पोस्ट में आपको देखने को मिलेगा।

क्या आपने कभी किसी अंदरूनी (indoor) पौधे को  Good Morning / सुप्रभात और Good Night/ शुभ रात्रि बोलते हुए महसूस किया है ?  

या यूँ कहें कि क्या कोई ऐसे पौधे को जानते हो जो आपको ये बताने में सक्षम हो कि सूर्योदय या सूर्यास्त का समय क्या है ?

या फिर कोई ऐसा पौधा जो दिन और रात में अंतर करना बख़ूबी जानता हो... कोई ऐसा पौधा .. क्या आपने कभी देखा है ?

दोस्तों पौधों और पेड़ों में ऐसी बहुत सी किस्में हैं जो ये सब कर सकती है उन्ही में से एक है हमारा आज की पोस्ट का हीरो- Phyllanthus Buxifolius 

मुझे प्रकृति के इस रूप के साथ रहने का सौभाग्य 2 महीने पहले मिला था तब से ही ये ख़ूबसूरत और पढ़ा-लिखा सा पौधा मेरे घर का हिस्सा है और अब तो हमारी मित्रता भी बहुत गहरी हो चुकी है... 

मैं अक्सर इससे कहता रहता हूँ कि "दोस्त, नाम तो ढंग का रख लिए होते" और ये बिलकुल मौन और प्रसन्नचित्त खड़ा रहता है मानों इसने पढ़ रखी हो William Shakspeare की वो बात कि 'What is in a name?' 

आइये मिलाते हैं मेरे दोस्त और आपकी दोस्ती के लिए बेताब यानि  Phyllanthus Buxifolius से -



 


इसका गहरा हरा रंग क़यामत कयामत है क़यामत 


नन्हीं प्यारी नई कोंपल ❤


रात को शुभरात्रि बोलने के बाद गहरी नींद में सो रहा है ये पौधा-


पहली बार देखने वाले व्यक्ति को लगेगा जैसे ये पौधा तो जल गया/ मर गया या ख़त्म हो गया और फिर वो व्यक्ति इसको बचाने की कोशिश करता है पानी डालता है, खाद डालता है और फिर सुबह ये पौधा फिर से तरोताज़ा... रात को फिर इसकी वही नौटंकी शुरू हो जाती है...  Too much fun  


ख़ुशी से लहराता हुआ-
                                                 

पौधे की देखभाल के बारे में कुछ तथ्य :

  • ज्यादा बड़ा गमला नहीं चाहिए, मध्यम आकर का मिट्टी या कंक्रीट का गमला पर्याप्त रहेगा।
  • इस पौधे को लगाने के लिए 80% मोटी बालू मिट्टी/गार्डन सॉइल, 20% गले-सड़े पत्तों की खाद ( अगर नहीं है तो पुरे गमले का 10% गोबर की खाद / अगर ये भी न हो तो 5 केलों के बारीक़ कटे हुए छिलके ) आप इसमें पुरे गमले का  30% वर्मीकंपोस्ट (+ 70% बालू मिट्टी) भी डाल सकते हैं जो बाजार में 100-150 रूपये की बैग मिलती है।  आप इसे ऑनलाइन AMAZON से भी खरीद सकते हैं जिसका लिंक मैंने इस ब्लॉग के Followers list के निचे डाल दिया है।  
  • गर्मियों में; दिन में एक बार पानी दें व पानी को ओवर फ्लो न होने दें।  शर्दियों में इसे मिटटी की ऊपरी परत सूखने पर ही पानी देवें।
  • इसके गमले को semi sunlight में रखें।  यानि इसको सीधी धुप न आये।  
  • ये प्राण वायु को शुद्ध करता है और घर/बालकनी/बरामदा/गार्डन की शोभा बढ़ाता है व आपको प्रकृति के करिश्मे से जोड़ता है। 
  • इसकी कटाई छंटाई के लिए अगस्त का महीना उचित रहता है।  आप इसे बोन्साई/ Bonsai का रूप भी दे सकते हैं। कटाई छंटाई में पीले पत्तों और निचे निचे की दो चार टहनियाँ हटाएँ। 
  • किसी भी बढ़िया ग्रीन नरसरी से आप इसे खरीद सकते हैं।  इस पौधे की कीमत 400- 500 रूपये तक है।  अगर आप इसे खरीदना चाहते हो और आपको ये उपलब्ध नहीं हो रहा है तो आप मुझे इस नंबर पर contect कर सकते हो- 9828219106   
taken from freepik.com  

Thank You 

ये पोस्ट आपको कैसी लगी आप अपनी बहुमूल्य कमेंट देकर जरूर बताएं। अगर मेरा काम पसंद आया हो तो आप मेरे इस ब्लॉग को फॉलो कर सकते हैं ताकि आप आने वाली नई पोस्ट को भी पढ़ सकें। 

 

Monday 28 June 2021

पुलिस के सिपाही से by 'पाश'

नमस्कार मित्रों,
आज इस ब्लॉग की ये दूसरी पोस्ट है जो साहित्य से संबंधित है. समय की मांग के हिसाब से आज जिस कविता को चुना गया है वो है क्रांतिकारी कवि पाश की कविता 'पुलिस के सिपाही से'

कवि:
अवतार सिंह संधू 'पाश'
जन्म - 9 सितंबर 1950   
            तलवंडी सलेम (जालंदर)
पाश साहब ने मात्र 15 साल की उम्र में लिखना शुरू कर दिया था।  वो मुलत: पंजाबी में लिखा करते थे। उन्होंने ऐसे जमीनी मामलों को जिनकी चिंता सियासत को कभी न हुई; हथियार बनाकर कविताओं में ऊगा दिए थे। 
1967 में पश्चिमी बंगाल के नक्सलवाड़ी गांव से शुरू हुए किसान विद्रोह में भाग लिया।
1969 झूठे मुकदमे में जेल भेजा गया।  यहीं जेल में ही युग-प्रवर्तक व नई धारा के प्रमुख प्रतिनिधि कवि पाश का जन्म कवि के रूप में हुआ।  इनकी पुस्तक "लौहकथा" जेल से लिखी गयी कविताओं का एक संग्रह है। 
1971 में जेल से रिहा हुए और साहित्य के क्षेत्र में बेबाक़ लिखने लगे। और अनेकों बार जेल की यात्रा करनी पड़ी। 
पाश जिंदगी के सही मायने के कितने करीब थे इन पंक्तियों से जान सकते हैं-

हम गीतों जैसी- गजर के 
बेताब आशिक हैं

वो दबाये और हक़ छीने गए गरीब व मध्यमवर्गीय लोगों की आवाज़ बने और उन्हें एक करने की कोशिस की-

हम अब सिर्फ़ उन के लिए ख़तरा हैं 
जिन्हें दुनियां में बस ख़तरा ही ख़तरा है 

23 मार्च 1988 को ख़ालिस्तानी आंतकवादियों ने कवि पाश की कायरतापूर्ण हत्या कर दी।  
शायद पाश ख़तरनाक कवि थे बार-बार जेल और पुलिस की यातनाएँ प्रमाण है। उनकी कविताएं आज भी सियासत को सही दिशा दिखाने और गलत करने पर मुँह तोड़ ज़वाब देने का काम करती है व सत्ता से टकरा जाती है इसीलिए NCRT की किताब में शामिल उनकी कविता 'सबसे ख़तरनाख' हटाने की जदोजहद चलती रहती है।  
पर फिर भी उन्होंने सियासत से अपने साहित्यिक कार्यों के लिए 18 साल छीन ही लिए. 

आज की कविता की एक भूमिका- 

आओ सोचें 
कि आंदोलन में शामिल होने वाला शख़्स आंदोलन में शामिल क्यों होता है?
कि आंदोलन का हिस्सा बना शख़्स अपने पीछे क्या-क्या छोड़ आया है?
कि क्यों आंदोलन की वजह जाने बग़ैर उसकी आवाज़ कुचलने के लिए सत्ता; सिपाहियों को लाठीचार्ज का आदेश दे  देती है? इसीलिए तो जब आंदोलन अपनी रफ़्तार पकड़ता है तो लोगों की सबसे पहली भिड़ंत पुलिस के सिपाही से होती है 


सिपाही वर्दी के अंदर ये भूल जाता है कि उसके परिवार की तथा इन आंदोलनकारियों की समस्या एक ही है।  उसको याद दिलाने के लिए पाश लिखते हैं कि-
... तुम लाख वर्दी की ओट में 
मुझ से दूर खड़े रहो
लेकिन तुम्हारे भीतर की दुनिया 
मेरी बाजु में बाँह डाल रही है

आगे पाश लिखते हैं कि हम सत्ता के दुश्मन नहीं हैं वरन हम केवल अपनी चिंता व बात रखने आये हैं। अभी हम इतने ख़तरनाक़ नहीं हुए हैं। सरकार को हमारी बात सुन लेनी चाहिए अगर ऐसा नहीं हुआ तो समाज का सारा तबका आंदोलन से जोड़ना पड़ेगा और सिपाही को भी इससे जुड़ना होगा क्योंकि सिपाही भी सियासत की मार से अछूता नहीं है।  
 'गर नहीं सांझी तो बस अपनी
यह वर्दी ही नहीं सांझी 
लेकिन तुम्हारे परिवार के दुःख 
आज भी मेरे साथ सांझे हैं 

पाश का ये सवाल सिपाही को सोचने पर मजबूर कर ही देता है कि 

सिपाही बता, मैं तुम्हें भी 
इतना खतरनाख लगता हूँ?

ये कविता आंदोलन का हिस्सा बने एक आम आदमी और सिपाही के बीच की आपसी मार्मिक वार्तालाप है।  

TEXT - 

पुलिस के सिपाही से 

मैं पीछे छोड़ आया हूँ 
समंदर रोती बहनें 
किसी अनजान भय से 
बाप की हिलती दाढ़ी 
और सुखों का वर मांगती 
बेहोश होती मासूम ममता को 
मेरी खुरली पर बँधे 
बेजुबान पशुओं को 
कोई छाया में न बांधेगा 
कोई पानी न देगा 
और मेरे घर में कई दिन 
शोक में चूल्हा न जलेगा 

सिपाही बता, मैं तुम्हें भी 
इतना खतरनाख लगता हूँ?
भाई सच बता, तुम्हें 
मेरी छिली हुई चमड़ी 
और मेरे मुहं से बहते लहू में 
कुछ अपना नहीं लगता ?
तुम लाख दुश्मन कतारों में 
बढ़-चढ़कर शेखियां बघार लो 
तुम्हारे निद्रा-प्यासे नयन 
और पथराया माथा 
तुम्हारी फटी हुई निक्कर 
और उसकी जेब में 
तंबाकू की रच गयी जहरीली गंध 
तुम्हारी चुगली कर रहे हैं 
'गर नहीं सांझी तो बस अपनी
यह वर्दी ही नहीं सांझी 
लेकिन तुम्हारे परिवार के दुःख 
आज भी मेरे साथ सांझे हैं 

तुम्हारा बाप भी जब 
सर के चारे का गठ्ठर फेंकता है 
तो उसकी कसी हुई नसें भी 
यही चाहती हैं 
बुरे का सिर अब किसी भी क्षण 
बस कुचल दिया जाए 
तुम्हारे बच्चों को जब भाई 
स्कूल का खर्च नहीं मिलता 
तो तुम्हारी अर्धांगिनी का भी 
सीना फट जाता है 

तुम्हारी पी हुई रिश्वत 
जब तुम्हारा अंतस जलाती है 
तो तुम भी 
हुकूमत की साँस-नली बंद करना चाहते  हो 
जो कुछ ही वर्षों में खा गयी है 
तुम्हारी चंदन जैसी देह 
तुम्हारी ऋषियों जैसी मनोवृति 
और बरसाती हवा जैसा 
परिवार का लुभावना सुख 
तुम लाख वर्दी की ओट में 
मुझ से दूर खड़े रहो
लेकिन तुम्हारे भीतर की दुनिया 
मेरी बाजु में बाँह डाल रही है 
हम जो बिना संभाले आवारा रोगी बचपन को 
आटे की तरह गूंथते रहे 
किसी के लिए खतरा न बने 
और वे* जो हमारे सुख के बदले         (वे  = माँ-बाप )
बिकते रहे, नष्ट होते रहे 
किसी के लिए चिंता न बने 
तुम चाहे आज दुश्मनों के हाथ में लाठी बन गए हो 
पेट पर हाथ रख कर बताओ तो
कि हमारी जात को अब 
किसी से और क्या ख़तरा है?
हम अब सिर्फ़ उन के लिए ख़तरा हैं 
जिन्हें दुनियां में बस ख़तरा ही ख़तरा है 

तुम अपने मुहं की गालियों को 
अपने कीमती गुस्से के लिए 
संभालकर रखो- 
मैं कोई सफ़ेदपोश 
कुर्सी का बेटा नहीं हूँ 
इस अभागे देश का भाग्य बनाते 
धूल में लथपथ हज़ारों चेहरों में से एक हूँ 
मेरे माथे से बहती पसीने की धारा से 
मेरे देश की कोई भी नदी बहुत छोटी है 
किसी भी धर्म का कोई ग्रंथ 
मेरे जख़्मी होठों की चुप से अधिक पवित्र नहीं है 
तुम जिस झंडे* को एड़ियां जोड़         (झंडा  = तिरंगा )
सलामी देते हो 
हम शोषितों के किसी भी दर्द का इतिहास 
उसके तीन रंगों से बहुत गाढ़ा है 
और हमारी रूह का हर एक जख़्म 
उसके बीच के चक्र से बहुत बड़ा है 
मेरे दोस्त, मैं तुम्हारे किलोंवाले बूटों तले 
कुचला पड़ा भी 
माउंट एवरेस्ट से बहुत ऊँचा हूँ 

मेरे बारे में तुम्हारे कायर अफ़सर ने 
गलत बताया है 
कि मैं इस हुकूमत का 
मारक महादुश्मन हूँ 
नहीं, मैंने तो दुश्मनी की 
अभी पूनी भी नहीं छुई है 
अभी तो मैं घर की मुश्किलों के सामने 
हार जाता हूँ 
अभी तो मैं अमल के गढ़े 
कलम से ही भर देता हूँ 
अभी मैं दिहाड़ियों और जाटों के बीच की 
लरजती कड़ी हूँ 
मेरी दाईं बाजु होकर भी अभी तुम 
मुझसे बेगाने लगते हो 
अभी तो मुझे 
हज्जामों के उस्तरे 
खंजर में बदलने हैं 
अभी राज मिस्त्रियों की करंडी पर 
मुझे चंडी की वार लिखनी है
अभी तो मोची की सुम्मी 
ज़हर में भिगोकर 
चमकते नारों को जन्म देने वाली कोख में घुमानी है 

अभी धुम्मे बढ़ई का 
भभकता धधकता हुआ तेसा 
इस शैतान के झंडे से 
ऊँचा लहराना है 
अभी तो आने जाने वालों के 
जूठे बर्तन माँजते रहे लागी 
जुबलियों में- लाग लेंगें 
अभी तो किसी कुर्सी पर बैठे 
गिद्ध की नरम हड्डी को जलाकर 
'खुशिया' चूहड़ा हुक्के में रखेगा 

मैं जिस दिन सातों रंग जोड़कर 
इंद्रधनुष बन गया 
दुश्मन पर मेरा कोई वार 
कभी खाली न जायेगा 
तब झंडीवाली* कार के      (झंडीवाली = पार्टी का झंडा )
बदबूदार थूक के छींटे 
मेरी जिंदगी के चाव भरे 
मुहं पर न चमकेंगे 
मैं उस रौशनी के बुर्ज़ तक 
अकेला नहीं पहुँच सकता 
तुम्हारी भी जरूरत है 
तुम्हे भी वहां पहुंचना होगा 

हम एक काफ़िला हैं 
जिंदगी की तेज खुशबुओं का 
तुम्हारी पीढ़ियों की खाद 
इसके चमन में लगी है 
हम गीतों जैसी- गजर के 
बेताब आशिक हैं 
और हमारी तड़प में 
तुम्हारी* उदासी का नगमा भी है    (तुम्हारी = सिपाही की )

सिपाही बता, मैं तुम्हें भी 
इतना खतरनाख लगता हूँ?
मैं पीछे छोड़ आया हूँ... 


- अवतार संधू 'पाश'

AMAZON से इनकी कविताओं का संग्रह "पाश: सम्पूर्ण कविताएं" खरीद सकते हैं।  जिसका लिंक मैं यहां दे रहा हूँ।             



होली : राजस्थानी धमाल with Lyrics व नृत्य विशेष

हमारा देश खुशियाँ बाँटने व बटोरने का देश है इसी परम्परा के अंतर्गत अनेक त्योहार मनाये जाते हैं ये त्योहार धार्मिक महत्व के साथ साथ सांस्कृति...