Thursday 3 March 2022

धरती की नागरिक: श्वेता सिन्हा


क्या आपने कभी महसूस किया है शब्दों की चलती हुई नब्ज़ को, इनके अंदर के जीवन को या इनके साथ चल रहे चलचित्र को कि कोई लिखे हवा और आपने हवा को देख लिया हो, कोई लिखे चाहत और आपने चाहत को जान लिया हो, कोई लिखे प्रेम में डूबना और आप डूब ही गए हों, कोई लिखे सूर्योदय और आप रात में सूर्य उदय होता देख रहें हों. ये 'कोई' कोई ओर नहीं बल्कि हमारी नामज़द कवयित्री श्वेता जी सिन्हा हैं। 

आइये रूबरू होते हैं इनकी कुछ कविताओं से... आइये सीखते है जीवन जीना नए तरिके से 
शीर्षक- हे प्रकृति 


मुझे ठहरी हुई हवाएँ
बेचैन करती हैं
बर्फीली पहाड़ की कठिनाइयाँ
असहज करती है
तीख़ी धूप की झुलसन से
रेत पर पड़ी मछलियों की भाँति
छटपटाने लगती हूँ
किसानों की तरह जीवट नहीं
ऋतुओं की तीक्ष्णता सह नहीं पाती
मैं बीज भी तो नहीं
जो अंकुरित होकर
धान की बालियाँ बने
और किसी का पेट भर सके
मैं चिड़िया भी नहीं 
जिसकी किलकारी से
मौन खिलखिला उठे
मैं पीपल या वट वृक्ष भी नहीं
जो असंख्य जीवों को
अपनी शाखाओं में समेटे
सुरक्षा का एहसास करा सके
मैं पहाड़ पर चढ़कर
बादलों में सपने नहीं भर सकी
मैं प्रेम भी नहीं हो सकी
जो मिटा सके मनुष्य के हृदय की
कलुषिता
मैं ज्ञान भी नहीं बन सकी
जो हो सके पुल
संभव और असंभव के बीच
मैं धूप-छाँव,नदी या झरना
भी नहीं 
शायद... बारिश की वह बूँद हूँ
जो गर्म रेत में गिरते ही सूखकर 
भाप बन जाती है
किसी कंठ की 
प्यास भी नहीं बुझा सकती,

उजाला,अंधेरा,
हरियाली,मरूभूमि, पहाड़,
सागर,सरिता,चिड़िया,चींटी
तितली,मौसम जैसी अनगिनत 
रंगों की अद्भुत चित्रात्मक
कृतियों की तरह ही
सृष्टि ने
मुझको भी दी है 
धरती की नागरिकता
अपने अधिकारों के
भावनात्मक पिंजरे में 
फड़फड़ाती 
जो न पा सकी उस
दुःख की गणना में
अपने मनुष्य जीवन के
कर्तव्यों को
पूरी निष्ठा से निभाने का शायद
ढोंग भर ही कर सकी। 
 
जीवन की 
यात्रा से असंतुष्ट
लासनायुक्त देह और
अतृप्त इच्छाओं के शापग्रस्त मन
का बोझ उठाये
अपने कर्मपथ की भूलभुलैया में 
निरंतर चलती थक चुकी हूँ
मात्र भीड़ की एक देह 
बनकर
अब जन्म-मरण के चक्र में
निरूद्देश्य और असंतुष्ट भटकना 
मुझे स्वीकार नहीं
हे प्रकृति!
मुझे बंधनों से मुक्त करो!
मुझे स्वयं में
एकाकार कर 
मेरे अस्तित्व को
सार्थकता प्रदान करो।

कविता की शुरुआत में कवयित्री को प्रकृति प्रदत कठिनाइयाँ असहज़ कर देती है फिर वो प्रकृति में विध्यमान कई अस्तित्व जैसे बीज, चिड़िया, वृक्ष, प्रेम जैसे अहसास की तुलना ख़ुद के बारिश की बूंद रूपी अस्तित्व से करती हैं जिसे इन सब के बिच इतना सार्थक नहीं मानती। कवयित्री ने यहां मनुष्य जीवन को बारिश की एक बूँद बताया है जिसे धरती की नागरिकता तो मिली लेकिन सभी जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों, पहाड़ों, नदी-नालों यहाँ तक की अहसासों ने प्रकृति के प्रति अपने कर्त्तव्यों को पूरी निष्ठा से निर्वहण किया है सिवाय मनुष्य के। 
मनुष्य ने प्रकृति के प्रति कर्त्तव्यों को निभाने का केवल ढोंग ही किया है। वह प्रकृति से हमेशा कुछ न कुछ छिनता ही रहता है व उसे नुकसान पहुंचता रहता है, संपूर्ण मानव जगत; भीड़ की भीड़ इसमें लगी है और इसे ही वे कर्म  मानते हैं और इसमें ही अपना विकास या प्रगति समझते हैं।  
प्रकृति प्रदत्त कर्मों को और उनसे जुड़े अपने दायित्वों को  मनुष्य ने भुला दिया है। लेकिन कवयित्री प्रकृति से प्रार्थना करती हैं कि वह उसे जीवन-मरण व स्वार्थी कर्मों के बंधनों से मुक्त करे क्योंकि कवयित्री अपने मूल कर्तव्यों का निर्वहन पूरी निष्ठा से कर सके और उसके अस्तित्व को सार्थकता मिल सके इसकेलिए वह खुद में एकाकार होना चाहती है ताकि अपने होने को जान सके, पहचना सके यानि खुद के करीब होना ही प्रकृति के करीब होना होता है। और क़रीब होकर ही क्या कुछ नहीं जाना जा सकता। 
ये संवाद व प्रार्थना रूपी रचना आत्ममंथन, चिंतन और यथार्थ से परिपूर्ण है। ये अभिव्यक्ति आम मानस को मायाजाल से ऊपर उठकर एक वास्तविक पहचान पाने के लिए प्रेरित करती है।  

एक अन्य बेहतरीन रचना-
शीर्षक- जोगिया टेसू मुस्काये रे 


गुन-गुन छेड़े पवन बसंती
धूप की झींसी हुलसाये रे, 
वसन हीन वन कानन में
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
ऋतु फाग के स्वागत में 
धरणी झूमी पहन महावर, 
अधर हुए सेमल के रक्तिम
सखुआ पाकड़ हो गये झांवर,
फुनगी आम्र हिंडोले बैठी
कोयलिया बिरहा गाये रे,
निर्जन पठार की छाती पर
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
ओढ़ ढाक की रेशमी चुनरी 
साँझ चबाये मीठी गिलौरी,
धनुष केसरी,भँवर प्रत्यंचा
बींधे भर-भर रंग कटोरी,
 
छींट-छींट चंदनिया चंदा
भगजोगनी संग इतराये रे,
रेशमी आँचल डुला-डुला
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
दह-दह,दह दहके जंगल
दावानल का शोर मचा, 
ताल बावड़ी लहक रहे
नभ वितान का कोर सजा,
गंधहीन पुष्पों की आँच 
श्वेत शरद पिघलाये रे,
टिटहरी की टिटकारी सुन
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
दान दधीचि-सा पातों का
प्रकृति करती आत्मोत्सर्ग,
नवप्रसून के आसव ढार
भरती सृष्टि में अष्टम् सर्ग,
लोलक-सी चेतना डोल रही
नयनों में टेसू भर आये रे,
हृदय की सूनी पगडंडी पर
जोगिया टेसू मुस्काये रे।

 ये अभिव्यक्ति शरद और बसंत के मौसम में पलाश व पलाश के फूलों का और आसपास का चित्रित रूप हैं। जब सारे पेड़ पौधे अपने पत्ते गिरा चुके हों तब पलाश के फूल खिलते हैं और ऐसा लग रहा हो जैसे वे मुस्का रहे हों। शाल व बरगद के पेड़ इस मौसम में कुम्हला चुके होते हैं लेकिन पलाश के झरे हुए केसरिया फूलों से धरती सजी रहती है। एक जानकारी के मुताबिक़ भारत-वर्ष में होली के रंगों को बनाने में पहले पलाश के फूलों का ही प्रयोग होता था। 
पलाश के फूलों को 'जंगल की आग' की संज्ञा दी जाती है जब ये खिलते हैं तो लगता है जंगल में आग लग गयी हो, इसके झरे हुए फूल जब नदी या ठहरे हुए पानी में गिर जाते हैं तो लगता है जैसे पानी आग की भांति चमक रहा हो और एक शोर मच जाता है कि जंगल में आग लग गयी है इसी बात पर टेसू (पलाश के फूल) चुटकी लेते हुए हँसता हुआ प्रतीत होता है। इस दृश्य को कवयित्री ने जिस मनोरम काव्य चित्रित भाव से प्रकट किया है वो देखते ही बनता है.
पुराने पत्तों को गिराना प्रकृति का एक बलिदान है ताकि उनकी जगह कुछ नया हो सके, कुछ नए पत्तों-कोंपलों का सृजन हो सके और सृष्टि नए रंगों से भर सके, लेकिन फ़िलहाल 
                                                "हृदय की सूनी पगडंडी पर 
                                                  जोगिया टेसू मुस्काये रे।"
इस कविता की तुकबंदी या लय व काव्य चित्रण आपको बसंती उन्माद से भर देगी। 

अन्य कविता जिसका शीर्षक है- अधिकार की परिभाषा 




 
जब देखती हूँ 
अपनी शर्तों पर
ज़िंदगी जीने की हिमायती
माता-पिता के
प्रेम और विश्वास को छलती,
ख़ुद को भ्रमित करती,
अपनी परंपरा,भाषा और संस्कृति 
को "बैकवर्ड थिंकिंग" कहकर
ठहाके लगाती
नीला,लाल,हरा और
किसिम-किसिम से
रंगे कटे केश-विन्यास
लो जींस और टाइट टॉप
अधनंगें कपड़ों को आधुनिकता का
प्रमाण-पत्र देती
उन्मुक्त गालियों का प्रयोग करती
सिगरेट के छल्ले उड़ाती
आर्थिक रुप से सशक्त,
आत्मनिर्भर होने की बजाय
यौन-स्वच्छंदता को आज़ादी
का मापदंड मानती
अपने मन की प्रकृति प्रदत्त
कोमल भावनाओं
को कुचलकर
सुविधायुक्त जीवन जीने
के स्वार्थ में
अपने बुज़ुर्गों के प्रति
संवेदनहीन होती
लड़कों के बराबरी की
 होड़ में दिशाहीन
 आधा तीतर आधा बटेर हुई
 बेटियों को देखकर
 सोचती हूँ
आख़िर हम अपने
किस अधिकार की
लड़ाई की बात करते हैं?
क्या यही परिभाषा है
स्त्रियों की
आज़ादी और समानता की?

नग्नता, जो मुँह में आये बोलना, यौन स्वच्छंदता को ही आजादी समझ बैठी नई पीढ़ी को उनके अभिभावकों की सोच में विश्वास जगाये रखना होगा क्योंकि उनकी सोच एक क्रमिक और अनुभवप्रसूत विकास पर आधारित है। अपने रहन सहन के तौर तरीकों को बदला नहीं जाता जबकि उनको अपडेट किया जाता है। ये कविता चिंता जनक विषय पर सटीक सवाल करती है जिस सवाल में चिंता और डर दोनों हैं।  आक्रोश में अमर्यादित बातें बोलना, किसी को अपमानित करना, किसी की बराबरी कर लेना ही आज़ादी नहीं होती अगर यही आज़ादी होती है तो इसी भाव के साथ लिखी एक अन्य बेहतरीन कविता में कवयित्री प्रश्न करती है कि " तो क्या आज़ादी बुरी होती है? "

श्वेता जी की कलम हरेक विषय पर बख़ूबी पकड़ रखती है और किसी  भी विषय में सकारात्मकता खोज लेने की काबिलीयत रखती है।  
श्वेता जी के द्वारा ऐसी ही सैंकड़ों कमाल की रचनाएँ इनके ब्लॉग पर उगाई जा चुकी है। इनका ब्लॉग click here --->  मन के पाखी  

मेरे इस ब्लॉग पर शेयर की गयी कविताओं को लेकर आपके विचार कवयित्री के लिए अनमोल हैं आप उनकी कविता पर टिप्पणी देकर अपने विचार श्वेता जी से साझा कर सकते हैं।  तीनो कविताओं के लिंक- 

                                           हे प्रकृति

                                          जोगिया टेसू मुस्काये रे

                                          अधिकार की परिभाषा

                                                                                 By: Rohitas Ghorela 
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अगर आपको मेरा काम अच्छा लगा हो तो आप इस ब्लॉग को फॉलो कर सकते हैं ताकि आपको ऐसी ही पोस्ट पढ़ने को मिलती रहे और मैं लिखने को प्रेरित होता रहूं।




36 comments:

  1. वाह , गज़ब की दृष्टि ।
    बेहतरीन कविताओं की बेहतरीन समीक्षा ।

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    1. आपका बहुत बहुत आभार।

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  2. उव्वाहहहहहहह..
    ग़ज़ब...
    साधुवाद..
    शुभकामनाएं..
    सादर..

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकी टिप्पणी अनमोल है।
      आभार।

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  3. सुंदर समीक्षा ! श्वेता जी की कविताएँ पहले भी पढ़ी हैं, आपने जिन कविताओं का चुनाव किया है, वे तीनों ही बहुत प्रभावशाली हैं ।

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    1. समीक्षा करना मुझे नहीं आता।
      बस अपने विचार लिख देता हूँ।
      आभार आपका🙏🏻

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  4. अद्भुत सृजन श्वेता जी का! लगता है ज्यों जीवन यथार्थ और प्रकृति के साथ अभिसार को निकल पड़ा है।
    श्वेता जी की विहंगम दृष्टि ,मन मंथन, धरातल से जुड़ा व्यक्तित्व,पर हिताय सोच, किसी के भी दर्द को अंतर तक महसूस करने की क्षमता और एक उत्कृष्ट शब्द संयोजना उन्हें एक संवेदनशील इंसान के साथ एक बेमिसाल कवियत्री के रूप में स्थापित करता है।
    तीनों रचनाएं अपने आप में अप्रतिम अभिनव, घोड़ला जी आपका चुनाव एंव आपका सारगर्भित भावार्थ कविताओं को और भी उत्कृष्ट गति प्रदान कर रहा है ।
    शानदार प्रयास शानदार भावार्थ के लिए आत्मीय शुभकामनाएं,एंव बधाई।

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    1. कुसुम जी मैं आपकी बात से सहमत हूँ।
      अपने मेरे काम को भी सराहा इसके लिए आपका बहुत बहुत आभार।

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  5. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शुक्रवार 04 मार्च 2022 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  6. सभी सुंदर रचनायें।

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  7. श्वेता जी की कविताओं में सदैव जीवन की समग्रता के दर्शन होते हैं ।आपने बहुत सुन्दर रचनाओं का चयन किया है । गहन समीक्षा के साथ लाजवाब प्रस्तुति ।

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    1. मीना जी
      आपका बहुत बहुत आभार

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  8. This comment has been removed by the author.

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  9. प्रिय रोहित,ब्लॉग जगत की शीर्ष कवयित्री और चर्चाकार प्रिय श्वेता की रचनाओं पर आधारित इस अंक ने मन को छू लिया। उसके उम्द रचना संसार से तीन रचनाओं का चयन बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य है पर तुमने ये कठिन काम बखूबी किया। श्वेता की लेखनी पर माँ शारदे की विशेष अनुकम्पा है। प्रकृति और प्रेम काव्य के प्रमुख प्रेरक रहे हैं।प्रिय श्वेता इनकी मनमोहक व्यंजना करना और नवल बिम्ब विधान से सजाना खूब जानती है। संयोग ही है कि आज की प्रस्तुति में शामिल तीनों रचनाएँ मेरी पसंदीदा रचनाएं हैं। हे प्रकृति!'------प्रकृति से विकल मन का मार्मिक संवाद है जिसमें प्रकृति से अधिकारपूर्वक सब कुछ लेकर,कर्तव्य रूप में कुछ भी न कर पाने की विवशता अंकित है।इस वेदना की समाप्ति काएकमात एकमात्र निवारण प्रकृति में समग्रता से लीन होना है।
    पुरूष के पदचिन्हों पर चल रही नारी क्या दूसरा पुरुष होकर ही अपने अधिकार पा सकेगी।क्या स्वछन्द आचरण ही वास्तविक आजादी है?इसी प्रश्न को सशक्त ढंग से उठाती है दूसरी रचना 'अधिकार की परिभाषा '
    'जोगिया टेसू मुस्काये रे!' प्रकृति का अफागुनी उत्सव है।फागुन के रंग समेट कर कुदरत टेसू के साथ फिर सजती है।ये मनमोहक रचना किस काव्य रसिक का मन ना मोह लेगी?
    संक्षेप में बहुत बहुत आभार इस सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति को सजाने के लिए।प्रिय श्वेता को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।

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    1. रचनाओं के चयन में खुद श्वेता जी का सहयोग प्राप्त हुआ तब जाके इन रचनाओं का चयन हुआ.
      आपकी टिप्पणी का मतलब ब्लॉग सफ़ल।
      आपका आभार। 🙏🏻💐💐

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  10. मित्र, तुमने श्वेता सिन्हा की भाव-पूर्ण कविताओं से हमारा परिचय करा कर बहुत सराहनीय कार्य किया है.
    श्वेता की कविताएँ मुझे बरबस ही मीरा और महादेवी की याद दिला देती हैं.
    श्वेता की निश्छल, सहज और भावपूर्ण कविताएँ उसके दिमाग से नहीं, उसके दिल से निकलती हैं और सीधे हम पाठकों के दिलों में अपना घर कर लेती हैं.

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    1. सही कहा सर आपने।
      आपकी प्रतिक्रिया मुझे हमेशा अच्छी लगती है।

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  11. वर्तमान समय की समकालीन कविता में प्रेम को महत्व दिया जाने लगा है,ऐसे समय में
    श्वेता सिन्हा ने इस अवधारणा को प्रकृति से जोड़कर नए बिंम्ब विधान
    और प्रतीकों के माध्यम से प्रेम को अनूठे अंदाज में अपनी कविताओं के माध्यम से पाठकों के सामने प्रस्तुत किया, जिसे सराहा भी गया और स्वीकारा भी गया.
    श्वेता की कविताओं पर लिखी सार्थक समीक्षा हेतु समीक्षक को साधुवाद.
    प्रस्तुत सभी कविताएं इस मापदंड पर खरी उतरी हैं.
    श्वेता सिन्हा को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं.

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    1. आपकी उपस्थिति बहुत मायने रखती है।
      आपका बहुत बहुत आभार

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  12. बहुत अच्छी कविताएं।श्वेता सिन्हा जी को बधाई।सुंदर ब्लॉग और पोस्ट।

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    1. जी शुक्रिया।
      🙏🏻🙏🏻

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  13. सराहनीय अनुकरणीय कार्य Rohitas Ghorela जी आपका
    साधुवाद
    छुटकी की लेखनी अद्धभुत है... उन्हें हार्दिक बधाई

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    1. वाकई अनुकरणीय?
      आपका बहुत बहुत आभार।

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  14. वाह बहुत सुंदर प्रस्तुति।♥️

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  15. श्वेता जी की लेखनी से मेरा परिचय तब से है, जब मैंने ब्लॉग बनाया था, मैने दो तीन ब्लॉग पढ़े और उनसे प्रेरित हो अपने ब्लॉग लेखन की शुरुआत की थी जो भी समझ नहीं आता था, मैं तुरत "
    मन के पांखी पर" पहुंच समझ लेती थी । जाने अनजाने श्वेता जी से ज्यादा उनके ब्लॉग से परिचय हो गया । अब तो मैं उनके सुंदर सारगर्भित लेखन की कायल हूं,श्वेता जी को और उनके ब्लॉग को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।
    श्वेता जी की सुंदर रचनाओं से परिचय कराने के लिए आपका बहुत बहुत आभार रोहितास जी ।

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    1. उनसे हिंदी सिख रहे हैं हम।
      हमारी मात्रात्मक त्रुटियों को वे ही सँवारती है।
      आपका बहुत बहुत शुक्रिया।

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  16. तीनों रचनाएँ जितनी सुंदर है उनको उतने अच्छे से समझाया जाना बहुत अच्छा लगा

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    1. बस एक प्रयास था अपनी समझ से।
      शुक्रिया रावत जी।

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  17. बहुत ही बेहतरीन रचनाएं। श्वेता जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। बेहतरीन प्रस्तुति रोहित जी।

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  18. बहुत बहुत आभार अनुराधा जी।

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  19. बेहतरीन कविताओं की बेहतरीन समीक्षा ।

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It will help us... Thank You. :)

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