नमस्कार मित्रों,
आज इस ब्लॉग की ये दूसरी पोस्ट है जो साहित्य से संबंधित है. समय की मांग के हिसाब से आज जिस कविता को चुना गया है वो है क्रांतिकारी कवि पाश की कविता 'पुलिस के सिपाही से'
कवि:
जन्म - 9 सितंबर 1950
तलवंडी सलेम (जालंदर)
पाश साहब ने मात्र 15 साल की उम्र में लिखना शुरू कर दिया था। वो मुलत: पंजाबी में लिखा करते थे। उन्होंने ऐसे जमीनी मामलों को जिनकी चिंता सियासत को कभी न हुई; हथियार बनाकर कविताओं में ऊगा दिए थे।
1967 में पश्चिमी बंगाल के नक्सलवाड़ी गांव से शुरू हुए किसान विद्रोह में भाग लिया।
1969 झूठे मुकदमे में जेल भेजा गया। यहीं जेल में ही युग-प्रवर्तक व नई धारा के प्रमुख प्रतिनिधि कवि पाश का जन्म कवि के रूप में हुआ। इनकी पुस्तक "लौहकथा" जेल से लिखी गयी कविताओं का एक संग्रह है।
1971 में जेल से रिहा हुए और साहित्य के क्षेत्र में बेबाक़ लिखने लगे। और अनेकों बार जेल की यात्रा करनी पड़ी।
पाश जिंदगी के सही मायने के कितने करीब थे इन पंक्तियों से जान सकते हैं-
हम गीतों जैसी- गजर के
बेताब आशिक हैं
वो दबाये और हक़ छीने गए गरीब व मध्यमवर्गीय लोगों की आवाज़ बने और उन्हें एक करने की कोशिस की-
हम अब सिर्फ़ उन के लिए ख़तरा हैं
जिन्हें दुनियां में बस ख़तरा ही ख़तरा है
23 मार्च 1988 को ख़ालिस्तानी आंतकवादियों ने कवि पाश की कायरतापूर्ण हत्या कर दी।
शायद पाश ख़तरनाक कवि थे बार-बार जेल और पुलिस की यातनाएँ प्रमाण है। उनकी कविताएं आज भी सियासत को सही दिशा दिखाने और गलत करने पर मुँह तोड़ ज़वाब देने का काम करती है व सत्ता से टकरा जाती है इसीलिए NCRT की किताब में शामिल उनकी कविता 'सबसे ख़तरनाख' हटाने की जदोजहद चलती रहती है।
पर फिर भी उन्होंने सियासत से अपने साहित्यिक कार्यों के लिए 18 साल छीन ही लिए.
आज की कविता की एक भूमिका-
आओ सोचें
कि आंदोलन में शामिल होने वाला शख़्स आंदोलन में शामिल क्यों होता है?
कि आंदोलन का हिस्सा बना शख़्स अपने पीछे क्या-क्या छोड़ आया है?
कि क्यों आंदोलन की वजह जाने बग़ैर उसकी आवाज़ कुचलने के लिए सत्ता; सिपाहियों को लाठीचार्ज का आदेश दे देती है? इसीलिए तो जब आंदोलन अपनी रफ़्तार पकड़ता है तो लोगों की सबसे पहली भिड़ंत पुलिस के सिपाही से होती है
सिपाही वर्दी के अंदर ये भूल जाता है कि उसके परिवार की तथा इन आंदोलनकारियों की समस्या एक ही है। उसको याद दिलाने के लिए पाश लिखते हैं कि-
... तुम लाख वर्दी की ओट में
मुझ से दूर खड़े रहो
लेकिन तुम्हारे भीतर की दुनिया
मेरी बाजु में बाँह डाल रही है
आगे पाश लिखते हैं कि हम सत्ता के दुश्मन नहीं हैं वरन हम केवल अपनी चिंता व बात रखने आये हैं। अभी हम इतने ख़तरनाक़ नहीं हुए हैं। सरकार को हमारी बात सुन लेनी चाहिए अगर ऐसा नहीं हुआ तो समाज का सारा तबका आंदोलन से जोड़ना पड़ेगा और सिपाही को भी इससे जुड़ना होगा क्योंकि सिपाही भी सियासत की मार से अछूता नहीं है।
'गर नहीं सांझी तो बस अपनी
यह वर्दी ही नहीं सांझी
लेकिन तुम्हारे परिवार के दुःख
आज भी मेरे साथ सांझे हैं
पाश का ये सवाल सिपाही को सोचने पर मजबूर कर ही देता है कि
सिपाही बता, मैं तुम्हें भी
इतना खतरनाख लगता हूँ?
ये कविता आंदोलन का हिस्सा बने एक आम आदमी और सिपाही के बीच की आपसी मार्मिक वार्तालाप है।
TEXT -
पुलिस के सिपाही से
मैं पीछे छोड़ आया हूँ
समंदर रोती बहनें
किसी अनजान भय से
बाप की हिलती दाढ़ी
और सुखों का वर मांगती
बेहोश होती मासूम ममता को
मेरी खुरली पर बँधे
बेजुबान पशुओं को
कोई छाया में न बांधेगा
कोई पानी न देगा
और मेरे घर में कई दिन
शोक में चूल्हा न जलेगा
सिपाही बता, मैं तुम्हें भी
इतना खतरनाख लगता हूँ?
भाई सच बता, तुम्हें
मेरी छिली हुई चमड़ी
और मेरे मुहं से बहते लहू में
कुछ अपना नहीं लगता ?
तुम लाख दुश्मन कतारों में
बढ़-चढ़कर शेखियां बघार लो
तुम्हारे निद्रा-प्यासे नयन
और पथराया माथा
तुम्हारी फटी हुई निक्कर
और उसकी जेब में
तंबाकू की रच गयी जहरीली गंध
तुम्हारी चुगली कर रहे हैं
'गर नहीं सांझी तो बस अपनी
यह वर्दी ही नहीं सांझी
लेकिन तुम्हारे परिवार के दुःख
आज भी मेरे साथ सांझे हैं
तुम्हारा बाप भी जब
सर के चारे का गठ्ठर फेंकता है
तो उसकी कसी हुई नसें भी
यही चाहती हैं
बुरे का सिर अब किसी भी क्षण
बस कुचल दिया जाए
तुम्हारे बच्चों को जब भाई
स्कूल का खर्च नहीं मिलता
तो तुम्हारी अर्धांगिनी का भी
सीना फट जाता है
तुम्हारी पी हुई रिश्वत
जब तुम्हारा अंतस जलाती है
तो तुम भी
हुकूमत की साँस-नली बंद करना चाहते हो
जो कुछ ही वर्षों में खा गयी है
तुम्हारी चंदन जैसी देह
तुम्हारी ऋषियों जैसी मनोवृति
और बरसाती हवा जैसा
परिवार का लुभावना सुख
तुम लाख वर्दी की ओट में
मुझ से दूर खड़े रहो
लेकिन तुम्हारे भीतर की दुनिया
मेरी बाजु में बाँह डाल रही है
हम जो बिना संभाले आवारा रोगी बचपन को
आटे की तरह गूंथते रहे
किसी के लिए खतरा न बने
और वे* जो हमारे सुख के बदले (वे = माँ-बाप )
बिकते रहे, नष्ट होते रहे
किसी के लिए चिंता न बने
तुम चाहे आज दुश्मनों के हाथ में लाठी बन गए हो
पेट पर हाथ रख कर बताओ तो
कि हमारी जात को अब
किसी से और क्या ख़तरा है?
हम अब सिर्फ़ उन के लिए ख़तरा हैं
जिन्हें दुनियां में बस ख़तरा ही ख़तरा है
तुम अपने मुहं की गालियों को
अपने कीमती गुस्से के लिए
संभालकर रखो-
मैं कोई सफ़ेदपोश
कुर्सी का बेटा नहीं हूँ
इस अभागे देश का भाग्य बनाते
धूल में लथपथ हज़ारों चेहरों में से एक हूँ
मेरे माथे से बहती पसीने की धारा से
मेरे देश की कोई भी नदी बहुत छोटी है
किसी भी धर्म का कोई ग्रंथ
मेरे जख़्मी होठों की चुप से अधिक पवित्र नहीं है
तुम जिस झंडे* को एड़ियां जोड़ (झंडा = तिरंगा )
सलामी देते हो
हम शोषितों के किसी भी दर्द का इतिहास
उसके तीन रंगों से बहुत गाढ़ा है
और हमारी रूह का हर एक जख़्म
उसके बीच के चक्र से बहुत बड़ा है
मेरे दोस्त, मैं तुम्हारे किलोंवाले बूटों तले
कुचला पड़ा भी
माउंट एवरेस्ट से बहुत ऊँचा हूँ
मेरे बारे में तुम्हारे कायर अफ़सर ने
गलत बताया है
कि मैं इस हुकूमत का
मारक महादुश्मन हूँ
नहीं, मैंने तो दुश्मनी की
अभी पूनी भी नहीं छुई है
अभी तो मैं घर की मुश्किलों के सामने
हार जाता हूँ
अभी तो मैं अमल के गढ़े
कलम से ही भर देता हूँ
अभी मैं दिहाड़ियों और जाटों के बीच की
लरजती कड़ी हूँ
मेरी दाईं बाजु होकर भी अभी तुम
मुझसे बेगाने लगते हो
अभी तो मुझे
हज्जामों के उस्तरे
खंजर में बदलने हैं
अभी राज मिस्त्रियों की करंडी पर
मुझे चंडी की वार लिखनी है
अभी तो मोची की सुम्मी
ज़हर में भिगोकर
चमकते नारों को जन्म देने वाली कोख में घुमानी है
अभी धुम्मे बढ़ई का
भभकता धधकता हुआ तेसा
इस शैतान के झंडे से
ऊँचा लहराना है
अभी तो आने जाने वालों के
जूठे बर्तन माँजते रहे लागी
जुबलियों में- लाग लेंगें
अभी तो किसी कुर्सी पर बैठे
गिद्ध की नरम हड्डी को जलाकर
'खुशिया' चूहड़ा हुक्के में रखेगा
मैं जिस दिन सातों रंग जोड़कर
इंद्रधनुष बन गया
दुश्मन पर मेरा कोई वार
कभी खाली न जायेगा
तब झंडीवाली* कार के (झंडीवाली = पार्टी का झंडा )
बदबूदार थूक के छींटे
मेरी जिंदगी के चाव भरे
मुहं पर न चमकेंगे
मैं उस रौशनी के बुर्ज़ तक
अकेला नहीं पहुँच सकता
तुम्हारी भी जरूरत है
तुम्हे भी वहां पहुंचना होगा
हम एक काफ़िला हैं
जिंदगी की तेज खुशबुओं का
तुम्हारी पीढ़ियों की खाद
इसके चमन में लगी है
हम गीतों जैसी- गजर के
बेताब आशिक हैं
और हमारी तड़प में
तुम्हारी* उदासी का नगमा भी है (तुम्हारी = सिपाही की )
सिपाही बता, मैं तुम्हें भी
मैं पीछे छोड़ आया हूँ...
- अवतार संधू 'पाश'
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